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३६८. भेंट : 'डेली एक्सप्रेस' के प्रतिनिधिसे

बम्बई
२४ अप्रैल, १९२४

भारतको गलतियाँ ही नहीं बल्कि जबरदस्त गलतियाँ करनेतक का अधिकार होना चाहिए। एक राष्ट्रके रूपमें यदि हम चाहें तो हमें आत्मघाततक करनेका अधिकार होना चाहिए। हम इस अधिकारके प्राप्त होनेपर ही स्वतन्त्रता और उत्तरदायित्वके वास्तविक रूपको समझ सकते हैं। "इंग्लेंडके प्रति असहयोग" आन्दोलनके प्रणेता गांधी जेलसे रिहा होनेके बाद पिछले छः हफ्तेसे बम्बईके समीप एक समुद्रतटीय विश्राम गृहमें रह रहे हैं। जब में उनसे मिला तो उन्होंने उक्त बात कही।

मैंने निवेदन किया कि राष्ट्रोंको तो क्या, किसी व्यक्तितक को आत्मघात करनेका नैतिक या वैधानिक अधिकार नहीं है।

व्यक्तिको ऐसा करनेका अधिकार भले ही न हो, शक्ति तो अवश्य है और जबतक भारतको भी यह शक्ति नहीं मिल जाती तबतक उसे पूर्ण रूपसे स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता।

मैंने उनसे यह जानना चाहा कि जिस स्वराज्यकी कल्पना आप करते हैं उस स्वराज्य (होम रूल) के अन्तर्गत भारतमें अंग्रेजोंकी स्थिति क्या होगी। उन्होंने कहा :

निःसन्देह ठीक प्रकारके अंग्रेजोंके लिए भारतमें सदैव स्थान बना रहेगा। मैं ऐसे किसी भी स्वराज्यकी कल्पना नहीं कर सकता जिसके लक्ष्योंमें अंग्रेजोंको भारतसे निकाल बाहर करने की योजना भी हो।

व्यक्तिगत रूपसे देखिए तो बहुतसे अंग्रेज मेरे दोस्त हैं और मैं उनकी मित्रताकी बहुत ज्यादा कद्र करता हूँ, परन्तु यदि ब्रिटेन शोषण नीतिका परित्याग कर देनेकी इच्छाका वास्तविक प्रमाण दे सके तो वातावरण अवश्य ही बहुत स्वच्छ हो जाये।

यद्यपि गांधी भारतीय राजनीतिकी सबसे ताजा परिस्थितियोंके सम्बन्धमें तबतक अपनी निजी सम्मति प्रकट करनेके लिए तैयार नहीं है जबतक कि स्वराज्यवादी नेताओंके साथ चल रही बातचीत पूरी न हो जाय, तथापि मेरे मनपर जो छाप पड़ी वह यह है कि वे कौंसिलोंमें रोध-अवरोधकी नीतिको पूर्णतया पसन्द नहीं करते।

गांधी आज भी पहले-जैसे एक अस्पष्ट आदर्शवादी बने हुए हैं। वे इस बातका आग्रह रखते हैं कि भारतको आर्थिक और नैतिक स्वातन्त्र्य प्राप्त करनेका अधिकार है, फिर भी उनकी यह धारणा जान पड़ती है कि चरखा—जिसके द्वारा भारत ब्रिटेनके सूती मालका आयात करनेसे निजात पा जायेगा—इस देशको मुक्तिका साधन है।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, १९–५–१९२४