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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे साथियोंको भी उससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, यह सोचकर मैंने उसे उद्धृत किया है।

पाँच-एक वर्ष पहले एक विद्वान् हितेच्छुने टीका की थी कि "गांधीकी गुजराती नये मैट्रिक्युलेटसे भी ज्यादा कमजोर है।" जिस मित्रने टीका सुनी थी उन्हें वह अच्छी नहीं लगी। जब उन्होंने मुझे इस टीकाके बारेमें बताया तब मैंने कहा कि यह टीका सही है और टीका करनेवाले के मनमें मेरे प्रति कोई द्वेष नहीं है; टीकाका कारण उनका भाषा प्रेम है। इस टीकाके सम्बन्धमें उस समय मैंने जो विचार व्यक्त किये थे वे आज भी उसी तरह कायम हैं।

मैं जानता हूँ कि मुझे गुजराती भाषाका सूक्ष्म ज्ञान नहीं है। मैं व्याकरणपर जितनी नजर रखना चाहता था उतनी नहीं रख सका हूँ। मैंने भाषाके विचारसे लिखनेका धन्धा शुरू नहीं किया है, बल्कि जैसी भाषा मुझे आती है अपने धन्धेके लिए उसीसे काम चलाना पड़ा है। यह में इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि मेरी भाषाकी भूलें माफ कर दी जायें। जानते हुए भूलें करना और क्षमा मांगना अक्षम्य है, इतना ही नहीं बल्कि यह तो एक दोषमें दूसरे दोषको जोड़ने के समान है। मुझे जो एक अमूल्य वस्तु मिल गई है उसमें मैं जगत्को भागीदार बनाना चाहता हूँ। इसमें भले मोह हो, अज्ञान हो, अभिमान हो, लेकिन वस्तुस्थिति यही है। मेरे कार्यमें भाषा एक बहुत बड़ा साधन है। कुशल कारीगरके पास जो हथियार होता है उसीसे वह अपना काम चला लेता है। ठीक यही चीज मुझे भी करनी पड़ी है। हम लोग एक वहमके शिकार हैं। जिस व्यक्तिमें एक बात सर्वश्रेष्ठ हो उसे बहुतेरी अन्य बातों में भी सर्वश्रेष्ठ मान लिया जाता है। और अगर वह महात्मा माना जाता हो, तब तो कहना ही क्या! वह तो सर्वश्रेष्ठ हुआ ही। इस वहमके कारण कोई मेरी भाषा सम्बन्ध में भ्रमित न हो जाये, इसलिए में उपर्युक्त टीका प्रकाशित करके अपने भाषा सम्बन्धी दोषोंको स्वीकार करता हूँ। सत्याग्रहके सम्बन्धमें, हिन्दुस्तानकी गरीबीको देखते हुए इस देशके उपयुक्त अर्थशास्त्र के नियमोंके सम्बन्धमें तथा ऐसी ही कुछ और वस्तुओंके सम्बन्धमें में अवश्य अपने-आपको कुशल मानता हूँ। लेकिन अपनी भाषाको में ग्रामीण तथा लेखन और व्याकरणके नियमोंको भंग करनेवाली मानता हूँ। इसलिए अन्य लोग मेरी भाषाका अनुकरण करें, यह बात मैं कदापि नहीं चाहता।

हिमालय के शिखरपर विराजमान मित्रने जो कुछ-एक दोष बताये हैं उन्हें अवश्य दूर करना चाहिए था। मेरी भाषाकी अपूर्णता मुझे दुःख देती है, लेकिन उससे मैं शर्मिन्दा नहीं होता। कुछ एक भूलें ऐसी है जो आसानीसे दूर हो सकती थी, इन भूलोंके सम्बन्धमें में अवश्य लज्जाका अनुभव करता हूँ। इन भूलोंको रहने देकर समाचारपत्र चलाने की अपेक्षा में उसे बन्द करना अधिक अच्छा मानता हूँ। समाचारपत्रका सम्पादक अगर भाषाके सम्बन्धमें लापरवाह रहता है तो वह अपराधी ठहरता है। 'मुशिद' और 'अमानुष'[१] शब्द ऐसे हैं जिन्हें माफ नहीं किया जा सकता। ये शब्द

  1. 'मुरीद' और 'अतिमानुष' के लिए गांधीजीने भूलते उक्त शब्दोंका प्रयोग किया था।