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टिप्पणियाँ

न केवल भगा दिया, बल्कि उन्हें अपना भरा हुआ पानी फेंकने के लिए बाध्य किया। आज भी यही स्थिति विद्यमान है। उपर्युक्त घटना दाहोद गाँवमें नहीं, दाहोदके मातहत गरबाडा गाँव में घटित हुई थी।

तात्पर्य यह कि अन्त्यज भाइयोंकी पहले जो स्थिति थी, वही आज भी है। श्री सुखदेवको इस बातकी जाँच करनी चाहिए कि मन्त्रीके नामसे यह गलत समाचार देनेवाला पत्र क्यों लिखा गया। झूठी खबरोंसे न तो अन्त्यजोंकी स्थिति सुधरनेवाली है, न हमारे पापोंका मार्जन ही होनेवाला है और न ही हमें स्वराज्य मिलनेवाला है। ठीक ढंगसे किया गया प्रायश्चित्त अखबारोंमें न भी छपे तो भी फलीभूत होता है। इस जगत् में करोड़ों सुकृत्य होते हैं जो समाचारपत्रों में प्रकाशित तो नहीं होते लेकिन जिनका प्रभाव निरन्तर होता ही रहता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २७–४–१९२४
 

३७४. टिप्पणियाँ
मिलकी पूनियाँ

हम देखते हैं कि अनेक स्थानोंपर आज भी मिलकी पुनियोंका उपयोग हो रहा है। जब चरखे की शुरुआत हुई थी उस समय पूनी किस तरह बनती है इसकी किसीको जानकारी नहीं थी। उस समय मिलकी पूनियोंका उपयोग भले ही किया गया हो, लेकिन आज तो इनका उपयोग असह्य माना जाना चाहिए। मिलकी पूनियोंका उपयोग तो वही करेगा जो चरखके मर्मको नहीं समझता। हम हिन्दुस्तानके प्रत्येक गाँव में और प्रत्येक घरमें चरखेको चलते हुए देखना चाहते हैं। हिन्दुस्तान में सात लाख गाँव हैं। अनेक तो रेलगाड़ी [की लाइन] से बहुत दूर हैं। वहाँ मिलकी पूनियाँ पहुँचाना असम्भव है। इसके सिवा जिस गाँवमें कपास होती है वहाँसे उसे दूसरे गाँव में ले जाकर ओटा जाये, बादमें वह मिलमें पहुँचे और वहाँ उसे धुना जाये और अन्तमें पूनीके रूपमें वह फिर उसी गाँव में प्रवेश करे और तब काता जाये यह तो ठीक वही बात हुई कि आटा तो बम्बई में साना जाये लेकिन रोटियाँ पकें पेथापुरमें[१]। कपास जहाँ काती जाये वहीं उसको धुना जाना चाहिए और जहाँ पैदा होती है वहीं उसे ओटा जाना चाहिए। आज जो अस्वाभाविक पद्धति चल रही है उसका जड़मूलसे उन्मूलन किया जाना चाहिए। कातनेकी प्रवृत्ति के मूलमें ही उसके पहलेकी समस्त क्रियाएँ समाहित हैं।

कर्नाटककी बहनें

बम्बई में रहनेवाली कर्नाटककी कोई पचास बहनें गत सप्ताह मेरे पास आई थीं। वे सब बहनें अपना काता हुआ सूत लाई थीं, साथ में ५०० रुपये भी थे।

  1. दक्षिण गुजरातका एक गाँव।