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अहिंसा

यदि कोई अर्थ है तो यही है कि वह अधिक आत्म-समर्पणकी दिशामें ले जाये। आगे चलकर यही हम सबको करना है। दो असमान (भासित होनेवाले) व्यक्तियोंके परस्पर आत्म-समर्पणका अर्थ अधिक स्वतन्त्रता है, क्योंकि यह किसी महत्तर उत्तरदायित्व है। महत्तम उत्तरदायित्वका पालन ही अधिकतम स्वतन्त्रता है। यह ईश्वरके प्रति पूर्ण आत्म-समर्पणसे ही प्राप्त होती है।

मैं जानता हूँ कि तुम जब भी हो सकेगा अवश्य आओगी। यदि मैं अब भी न पकड़ा गया तो मैं कुछ समयतक गुजरातसे बाहर नहीं जाऊँगा। मेरी गिरफ्तारीके बारेमें तरह-तरहकी अफवाहें हैं।

कुमारी पीटर्सनपर[१] मेरा एक पत्र चढ़ा हुआ है।
तुम सबको प्यार सहित,

तुम्हारा,
बापू

नेशनल आर्काइन्ज़ ऑफ इंडियामें सुरक्षित मूल अंग्रेजी पत्रकी फोटो-नकल तथा 'माई डियर चाइल्ड' से।

 

१३. अहिंसा

जब कोई मनुष्य यह कहता है कि मैं अहिंसापरायण हूँ, तब उससे यह आशा की जाती है कि यदि उसे कोई हानि पहुँचाये तो वह उसपर क्रोध न करे, उसका नकसान न चाहे; बल्कि उसकी भलाई ही चाहे। न वह उसके प्रति अनर्गल प्रलाप करेगा और न उसे किसी तरहकी शारीरिक चोट ही पहँचायेगा। वह तो अन्यायकर्त्ता द्वारा किये गये अपने हर तरहके नुकसानको सहन ही करेगा। इस तरह अहिंसा पूर्ण निर्दोषिताकी अवस्था है; और पूर्ण अहिंसाका अर्थ है प्राणिमात्रके प्रति दुर्भावका पूर्ण अभाव। इसलिए अहिंसामें मनुष्यसे नीचेकी कोटिके प्राणियों, यहाँतक कि हानिकर कीड़े-मकोड़ों और पशुओंका भी समावेश है। उनकी सृष्टि हमारी विनाशक प्रवृत्तियोंका पोषण करते रहने के लिए नहीं हुई है। यदि हम सृष्टिकर्ताके हेतुको समझ पाते तो हमें इस बातका पता लग जाता कि उसकी सृष्टिमें उन जीवोंका उचित स्थान क्या है। अतएव अहिंसाका क्रियात्मक रूप क्या है? प्राणिमात्रके प्रति सद्भाव। यही शुद्ध प्रेम है। क्या हिन्दू शास्त्र, क्या 'बाइबिल' और क्या 'कुरान', सब जगह मुझे तो यही दिखाई पड़ा है।

अहिंसा एक पूर्ण स्थिति है। सारी मनुष्य-जाति इसी एक लक्ष्यकी ओर स्वभावतः परन्तु अनजाने बढ़ रही है। मनुष्य जब अपने तईं निर्दोषिताकी साक्षात् मूर्ति बन जाता है तब वह कुछ दैवी पुरुष नहीं हो जाता। उसी अवस्थामें वह सच्चा मनुष्य

  1. एन मेरी पीटर्सन, एक डेनिश मिशनरी।