पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बनता है। आजकी अवस्थामें तो हम कुछ अंशोंमें मनुष्य और कुछ अंशोंमें पशु हैं। हम घूँसेके बदले घूँसा जमाते हैं। ऐसा करते हुए दाँत पीसते हैं और ऊपरसे अपने दर्प और अज्ञानके वशीभूत होकर इसे मनुष्य जातिके अस्तित्वको सचमुच सार्थक बनाना तक कह डालते हैं। हम ढोंग रचते हैं कि प्रतिहिंसा मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और हमारा इसके बिना काम ही नहीं चल सकता। परन्तु इसके विपरीत धर्मग्रन्थोंमें तो हम यह पाते हैं कि प्रतिहिंसाको कहीं भी अनिवार्य कर्त्तव्य नहीं माना गया है। उसके लिए केवल छूट-भर दी है। अनिवार्य कर्त्तव्य तो संयम है। प्रतिहिंसा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें न जाने कितने नियमों और उपनियमोंके पालन करनेका ध्यान रखना पड़ता है। और संयम तो हमारे जीवनकी सहज-सरल गति है। बिना पूर्ण संयमके मनुष्य पूर्णावस्थाको पहुँच ही नहीं सकता। इस प्रकार सहनशीलता संयम—ही मनुष्य-जातिका विशेष धर्म है।

लक्ष्य तो हमेशा आगे-ही-आगे खिसकता रहता है। ज्यों-ज्यों अधिक प्रगति होती जाती है त्यों-त्यों हमें अपनी अयोग्यताका अधिकाधिक आभास होता है। सन्तोष तो प्रयत्नमें है, अभीष्ट सिद्धिमें नहीं। पूर्ण प्रयत्न ही पूर्ण विजय है।

अतएव, यद्यपि मैं सदासे भी अधिक आज इस बातको महसूस करता हूँ कि मैं अपने लक्ष्यसे बहुत दूर हूँ, तथापि मेरे लिए तो पूर्ण प्रेमका सिद्धान्त ही अपने अस्तित्वका नियम है। जब-जब मुझे असफलता मिलेगी, मैं असफलताके कारण और भी अधिक निश्चयके साथ प्रयत्न करूँगा।

लेकिन मैं कांग्रेस और खिलाफत संगठनके द्वारा इस सर्वोपरि सिद्धान्तके अमलका प्रचार कर ही नहीं रहा हूँ। मैं अपनी मर्यादाओंको खूब अच्छी तरह जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि ऐसा प्रयत्न असफल ही रहेगा। सारे मनुष्य-समाजसे यह आशा करना कि वे सब एकबारगी इस सिद्धान्तके अनुसार चलने लगेंगे, इस सिद्धान्त के रहस्यका अज्ञान सूचित करता है। लेकिन फिर भी कांग्रेसके मंचसे मैं उस सिद्धान्तसे निकले नियमोंका प्रचार तो अवश्य कर रहा है। कांग्रेस तथा खिलाफत समितिने तो इस सिद्धान्तसे निकलनेवाले निष्कर्षोंका एक अंश-मात्र स्वीकार किया है। यदि कार्यकर्त्ता लोग सच्चे हों, तो थोड़े ही समयमें यह बात जानी जा सकती है कि विशाल जन-समूहपर सीमित परिमाणमें उसका प्रयोग किस तरह किया जा सकता है। लेकिन वह सीमित परिमाण भी तभी खरा ठहर सकता है जब कि वह भी उसी कसौटीपर कसा गया हो; जिसपर सम्पूर्ण सिद्धान्त। एक बूँद पानीमें वे सब गुण-धर्म होने चाहिए जो एक पूरे सरोवरके पानीमें होते हैं। अपने भाईके साथ मैं जिस अहिंसाका व्यवहार करूँगा, वह सारे विश्वके प्रति मेरी अहिंसासे भिन्न नहीं हो सकता। जब मैं अपने भ्रातृ-प्रेमको सारे विश्वतक व्यापक करूँ तो उस अवस्थामें भी उसे सत्यकी कसौटीपर खरा उतरना चाहिए।

जब किसी नियमका व्यवहार देश और कालकी मर्यादासे बाँध दिया जाता है, तब उसे व्यवहार-नियम या व्यवहार-धर्म कहते हैं। अतएव उच्चतम व्यवहार-नियमका पालन ही उस सिद्धान्तका पूर्ण रूपसे पालन करना है। लेकिन हम प्रामाणिकताका व्यवहार चाहे नीति समझकर करें, चाहे सिद्धान्त समझकर, जबतक वह प्रामाणिकताके