पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/५७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३३
टिप्पणियाँ

कहूँ?" मैंने कहा : "अवश्य कहिएगा। मैं मन्त्रीसे मिलना भी चाहता हूँ।" मेरा खयाल है कि मैंने श्री छगनलालको उपर्युक्त बातचीतकी कोई भी बात समाचारपत्रों में प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दी थी। श्री छगनलालने अपनी और मेरी इस बातचीतको जिस तरह समझा उसके अनुसार उसका सारांश समाचारपत्रोंको या तो स्वयं दे दिया अथवा उसकी चर्चा ऐसे स्थानपर की जिससे कि वह समाचारपत्रोंमें आये बिना नहीं रह सकती थी। इससे जीवदया मण्डलके सदस्योंको दुःख हुआ और यह देखकर उन्हें आश्चर्य भी हुआ कि उनकी ओरसे तथ्योंको जाने बिना ही मैंने प्रतिकूल धारणा बना ली। उन्हें आश्चर्य होना ठीक भी था क्योंकि इस तरह धारणा बना लेना मेरी हमेशा की पद्धतिके विरुद्ध है। मैंने कोई धारणा बनाई भी नहीं थी। श्री छगनलालके समक्ष मैंने जो टीका की थी वह भी 'यदि' पर आधारित थी। उसका यह आशय था कि "उपर्युक्त पत्रमें जो बातें कही गई हैं यदि मण्डलने वैसा ही किया हो तो वह जीवहत्या के समान है।" श्री छगनलाल मुझसे फिर मिल गये हैं और उन्होंने पत्र में प्रकाशित सारी हकीकत के लिए गहरा खेद प्रकट किया है। मैं मानता हूँ कि उपर्युक्त खुली चिट्ठीमें जीवदया मण्डलपर जो आक्षेप किये गये हैं, उनमें कोई सार नहीं है। मण्डलके मन्त्री लल्लूभाई और अन्य सदस्योंके साथ मेरी इस विषयपर काफी चर्चा हुई है।

बहुमत

लेकिन उपर्युक्त खुली चिट्ठी में एक बात ऐसी है जो विचारणीय है।

क्या नगरपालिकामें अथवा अन्य किसी सार्वजनिक संस्थामें धर्म सम्बन्धी प्रश्नोंपर बहुमतके द्वारा निर्णय लिया जा सकता है? मान लीजिए कि हिन्दू, मुसलमान और पारसी सदस्य मिलकर बहुमतसे यह प्रस्ताव पास करते हैं कि हिन्दू स्कूलों में अन्त्यज बच्चों को दाखिल किया जाना चाहिए। मान लीजिए कि अगर केवल हिन्दुओं के ही मत लिये जाते तो वह प्रस्ताव रद्द हो जाता। ऐसी स्थितिमें क्या उक्त प्रस्ताव उचित माना जायेगा? मुझे तो लगता है कि उचित नहीं माना जा सकता; इतना ही नहीं, बल्कि वैसा प्रस्ताव पास करनेसे सुधारकी प्रगतिमें रुकावट पैदा होगी। हिन्दुओंके समाजका सुधार क्या विधर्मियोंके मतोंसे हो सकता है? अस्पृश्यता पाप है, यह ज्ञान अधिकांश हिन्दुओंको ही होना चाहिए। [तभी अस्पृश्यता दूर हो सकती है।] इसमें दूसरोंके मत किसी कामके नहीं हैं, यह बात स्वयंसिद्ध है।

उसी तरह मुसलमानोंको गोरक्षा करनी चाहिए अथवा नहीं, इसका निर्णय मिश्र समाज बहुमतके द्वारा नहीं कर सकता। यह निर्णय तो बहुमतके द्वारा मुसलमानोंको ही करना होगा। जबसे हिन्दुओं और मुसलमानोंके मन एक दूसरेसे खट्टे हो गये हैं तबसे जिस सवालका धर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है वह सवाल भी धर्मसे सम्बन्धित माना जाने लगा है। छोटे बछड़ोंकी हत्या नहीं की जानी चाहिए, इसके लिए धर्म-शास्त्र के आधार की कोई जरूरत नहीं है। कोई भी धर्म ऐसे आर्थिक नियमोंका विरोधी नहीं होता और न है। लेकिन मुसलमानोंका संशयालु मन इसमें "अँगुली पकड़कर पहुँचा पकड़े" जानेका भय देखता है। इसलिए अगर मैं नगरपालिकाका