३७६. पत्र : हरिभाऊ उपाध्यायको
[अप्रैल, १९२४ के अन्तमें][१]
भाई हरिभाऊ,[२]
मेरा दुःख कुछ तुम्हारे 'मालव मयूर' के लेखोंसे नहिं था। लेख तो मैंने कुछ ऐसे ही देखे। मेरा दुःख सिध्धान्त भेदका था। मेरा अभिप्राय है कि प्रत्येक पुरुष जो कुछ लिख सकता है वह मासिक इ॰ निकालने की कोशिश [में] पड़ जाता है। उससे बहोत कम लाभ होता है। आपको यदि खास पेगाम मालवाके भाई बहनोको देनेका होता तो मैं समज सकता था। यह सब बारीक बातें हैं। उनका ख्याल न कीजिए। जब मिलेंगे तब ज्यादा बात करेंगे।
बापुका आशीर्वाद
[पुनश्चः]
'हि॰ न॰' में लिखने की कोशिश अवश्य करूँगा। 'हि॰ न॰' के लिए लेख कब पहुँचने चाहिए?
सेवाभाव के साथ ज्ञानकी आवश्यकता समजता हूँ। आप शीघ्रतासे 'मयूर' बंध करनेका प्रयत्न न करें। एक मासमें तो मैं आश्रम पहोंचने की उम्मीद रखता हुँ। "अनारंभो हि कार्याणाम्" श्लोकका न्याय ईस प्रवृत्तिको लागू होता है।
- मूल पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ६०५१) से।
- सौजन्य : मार्तण्ड उपाध्याय
३७७. पत्र : हरिभाऊ उपाध्यायको
बृहस्पतिवार [ ३० अप्रैल, १९२४ के पश्चात्][३]
भाई हरिभाऊ,
तुम्हारा खत मिला। मुझको 'मालव मयुर' देखकर खेद हुआ था। जबतक कोईके पास खास पेगाम नहीं है, नया अखबार न निकाले। यदि बंध हो सकता है तो इसमें से छुट जाना अच्छा समजता हुँ। यदि स्वावलम्बी बन गया है तो रहने दीजिए।