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जेलके अनुभव—३

हैं, उन्हें उसमें कोई अश्लीलता नहीं लगती। किन्तु ऐसी भाषा जब किसी भावुक व्यक्तिके सम्मुख प्रयुक्त की जाती है, तब वह उसे बहुत अखरती है। ये टुकड़ियाँ कैदी वार्डरोंके अधीन काम करती हैं। ये कैदी वार्डर काम लेते समय कैदियोंको भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हैं। और काफी क्रुद्ध हो जानेपर तो वे डंडेका उपयोग करनेसे भी नहीं चूकते। यह कहना अनावश्यक है कि ये दोनों बातें अनधिकृत ही नहीं गैरकानूनी भी हैं। किन्तु मैं ऐसी गैरकानूनी बातोंकी खासी बड़ी सूची प्रस्तुत कर सकता हूँ, जो कारागारोंमें अधिकारियोंकी जानकारीमें और कभी-कभी उनके संकेतसे भी होती हैं। मैंने ऊपर जिस भावुक कैदीका उल्लेख किया है वह गन्दी भाषाको बरदाश्त नहीं कर सका। अतः उसने वैसी भाषाका प्रयोग बन्द न किये जानेतक उस टुकड़ीमें काम करनेसे इनकार कर दिया। मेजर जोन्स के तत्काल हस्तक्षेप करने से वह विषम स्थिति टली, किन्तु यह राहत क्षणिक ही सिद्ध हुई। ऐसी घटनाको फिर घटित न होने देनेकी शक्ति मेजर जोन्स में नहीं थी; क्योंकि जबतक कैदियोंका वर्गीकरण किसी नैतिक मानदण्ड के अनुसार तथा प्रशासकीय सुविधाकी अपेक्षा उनकी मानवीय आवश्यकताओंके खयालसे नहीं होता, तबतक ऐसी घटनाओंकी पुनरावृत्ति कदापि नहीं रोकी जा सकती।

हमारा खयाल था कि कारागारमें, जहाँ प्रत्येक कैदी दिन-रात निगरानी में रहता है और जहाँ वह वार्डरकी निगाहसे कभी ओझल नहीं हो पाता, अपराध सम्भव नहीं होते होंगे। किन्तु दुर्भाग्यवश वहाँ सभी तरहके नैतिक अपराध किये जाते हैं—इतना ही नहीं वे निःशंक होकर किये जाते हैं। छोटी-मोटी चोरियों, धोखेबाजियों और मामूली मारपीट अथवा संगीन हमलोंका उल्लेख मैं नहीं करूँगा किन्तु मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि वहाँ अप्राकृतिक अपराध तक होते हैं। मैं इसका ब्योरा देकर पाठकोंको व्यथित नहीं करना चाहता। कारावास के अपने अनेक अनुभवोंके बावजूद मेरा खयाल यह नहीं था कि कारागारोंमें ऐसे अपराध भी होते होंगे। किन्तु यरवदा जेलमें एकाधिक बार ऐसे मामले सामने आये जिनके कारण मुझे बड़ा आघात लगा। बल्कि अप्राकृतिक अपराधोंके होते रहने की बात जानकर तो मुझे सबसे बड़ा आघात पहुँचा था। जिन अधिकारियोंने मुझसे इनके बारेमें बात की उन सबने यही कहा कि वर्त्तमान प्रणालीमें इन अपराधों को रोकना असम्भव है। जिस व्यक्तिको इस अपराधका शिकार बनना पड़ता है प्रायः इसमें उसकी सहमति नहीं होती। मैं विचारपूर्वक कहता हूँ कि ऐसे अपराधों को रोकना सम्भव है, बशर्तें कि कारागारोंके प्रशासन में मानवीयताका समावेश किया जाये, और उसे सर्वसाधारणकी चिन्ताका विषय बनाया जा सके। भारतके कारागारों में कैदियोंकी संख्या कई लाख अवश्य होगी। सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओंको इस बातकी फिक्र होनी चाहिए कि उनपर क्या बीतती है। आखिर दण्डका उद्देश्य सुधार है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि विधान मण्डल, न्यायाधीश और कारावासके अधीक्षक आदि यह अपेक्षा करते हैं कि सजाओंसे अपराधोंकी प्रवृत्ति घटेगी और ऐसा उससे केवल शरीर और मनको होनेवाले कष्टके फलस्वरूप नहीं होगा बल्कि उस पश्चात्ताप के फलस्वरूप भी होगा जो दीर्घकाल तक एकान्त पाकर आवश्यक रूपसे उत्पन्न होता है। किन्तु तथ्य यह है कि सजाओंसे कैदी और भी पशु-तुल्य बन जाते हैं। कारागारोंमें उन्हें कभी पश्चात्ताप करने अथवा सुधरनेका अवसर नहीं मिलता।