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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहृदयताका वहाँ अभाव है। यह ठीक है कि प्रति सप्ताह वहाँ धार्मिक उपदेशक जाते हैं। मुझे इन सभाओं में से किसीमें भी भाग लेनेकी अनुमति नहीं दी गई; किन्तु मैं जानता हूँ कि यह बहुधा ढकोसला भर होता है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि उपदेशक ढोंगी होते हैं। किन्तु सप्ताह में एक बार कुछ मिनटोंकी धार्मिक चर्चाका उन लोगोंपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, जिन्हें साधारणतः अपराध करने में कोई बुराई नहीं दिखाई देती। आवश्यक यह है कि ऐसे सहानुभूतिपूर्ण वातावरणका निर्माण किया जाये, जिसमें कैदी अनजाने ही बुरी आदतें छोड़ें और अच्छी आदतें सीखें।

किन्तु जबतक कैदियोंको बहुत अधिक उत्तरदायित्वके कार्य सौंपने की प्रथा कायम है, तबतक ऐसा वातावरण उत्पन्न होना असम्भव है। इस पद्धतिका बदतर भाग है कैदियोंको अधिकारियोंकी तरह नियुक्त करना। बहुत लम्बी सजा पाये हुए कैदी ही ऐसे पदोंपर नियुक्त होते हैं। अतः ये ऐसे ही लोग होते हैं जिन्हें किसी अत्यन्त गम्भीर अपराध करनेपर सजा दी गई होती है। बहुधा क्रूर-स्वभाववाले कैदी वार्डर बनाये जाते हैं। वे अत्यन्त ढीठ होते हैं और आगे आने में सफल हो जाते हैं। कारागारों में जितने भी अपराध होते हैं लगभग उन सभीमें इनका हाथ होता है ऐसे ही दो वार्डरोंमें एक बार सबके देखते लड़ाई हुई और उनमें से एक व्यक्ति मारा गया। लड़ाईका कारण यह था कि एक ही कैदी उन दोनोंकी अप्राकृतिक कामवासनाका शिकार था। सभी जानते थे कि जेलमें क्या चल रहा है, किन्तु अधिकारी केवल इतना ही हस्तक्षेप करते रहे जितनेसे लड़ाई अथवा खून-खराबी भर रुकी रहे। ये कैदी-अधिकारी ही दूसरे कैदियोंको किस कामपर लगाया जाये इसकी सिफारिश करते हैं। ये ही उनके कामकी देखरेख भी करते हैं। वे अपने अधीन कैदियोंके सद्व्यवहार के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। वास्तवमें स्थायी अधिकारी जो कुछ कहना या करना चाहते हैं वह इन्हीं कैदियों के माध्यमसे कहा और कराया जाता है, जिन्हें अधिकारीकी प्रतिष्ठा सौंप दी गई होती है। मुझे आश्चर्य इस बातपर है कि ऐसी प्रथाके अन्तर्गत वास्तवमें जितनी बुरी हालत अब है उससे भी ज्यादा बुरी क्यों नहीं हुई। इससे मेरे समक्ष यह बात और प्रत्यक्ष हो गई कि मानव किस प्रकार एक दूषित सामाजिक व्यवस्थाकी अपेक्षा उच्चतर पाया जाता है और एक अच्छी समाज-व्यवस्थाकी अपेक्षा निम्नतर। लगता है, मनुष्य स्वभावसे ही मध्यम मार्गका अनुसरण करता है।

रसोई बनानेका सारा काम भी कैदियोंको सौंप दिया जाता है। नतीजा यह होता कि एक तो भोजन लापरवाही के साथ बनाया जाता है और सधा-सधाया पक्षपात चलता है। कैदी ही आटा पीसते हैं, सागभाजी काटते हैं, भोजन बनाते हैं और परोसते हैं। जब-जब खाना कम और खराब होने की शिकायत की गई, तो सदा एक ही उत्तर मिला, इसका उपाय कैदियों के ही हाथों में है, क्योंकि वे अपना भोजन आप ही बनाते हैं; मानो वे सब एक-दूसरे के सगे हों और पारस्परिक उत्तरदायित्वको समझते हों। एक बार जब मैंने तर्कके सहारे किसी उचित निष्कर्ष तक पहुँचने का आग्रह किया तब मुझसे यह कहा गया कि कोई भी शासन इतना खर्च बरदाश्त नहीं कर सकता। उस समय भी मैंने इसे ठीक नहीं माना और अधिक गौर करनेपर मेरा यह विचार पुष्ट ही हुआ है कि यदि व्यवस्थित रूपसे काम किया जाये तो कारागारोंका प्रशासन