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अहिंसा

साथ व्यवहृत होती है, तबतक वह सिद्धान्त ही है। ईमानदारीकी व्यवहार-नियमके तौरपर माननेवाला दुकानदार भी वैसा ही और उतने ही गज कपड़ा देता है, जितना कि ईमानदारीको धर्म समझनेवाला दुकानदार। दोनोंमें फर्क केवल इतना ही है कि चतुर दुकानदार अपनी ईमानदारीको उस समय छोड़ देगा जब उसमें उसे लाभ दिखाई नहीं देगा और उसपर श्रद्धा रखनेवाला दुकानदार अपना सर्वस्व गँवा देनेपर भी उससे मुँह नहीं मोड़ेगा।

पर असहयोगियोंकी राजनैतिक अहिंसा इस कसौटीपर ज्यादातर खरी नहीं उतरती। इसीसे यह संघर्ष लम्बा खिंचता जा रहा है। इस कारण अंग्रेजोंकी दुराग्रही प्रवृत्तिको दोष नहीं देना चाहिए। प्रेममें पत्थर तकको पिघला देनेकी शक्ति होती है। मैं इस बातको जानता हूँ; अतएव अपने इस विचारको मैं त्याग नहीं सकता। यदि अंग्रेजों अथवा दूसरे लोगोंपर इसका यथेष्ट असर नहीं होता, तो इसका अर्थ यही है कि या तो वह प्रेनाग्नि ही हमारे अन्दर नहीं है या वह पर्याप्त रूपसे प्रचण्ड नहीं है।

हमारी अहिंसा बलवान्की अहिंसा भले न हो, पर उसे सच्चे लोगोंकी अहिंसा जरूर होना चाहिए। यदि हम अहिंसापरायण होनेका दावा करते हैं तो हमें उस घड़ीतक अंग्रेज अथवा अपने सहयोगी भाइयोंको हानि पहुँचानेका इरादा कदापि नहीं करना चाहिए जबतक हम अपना यह अहिंसापरायणताका दावा छोड़ नहीं देते। लेकिन हममें से अधिकांश लोगोंने निःसन्देह उन्हें नुकसान पहुँचाना चाहा है। यदि ऐसा किया नहीं है तो उसका कारण या तो हमारी कमजोरी है या यह भ्रान्ति है कि केवल शारीरिक हानि न पहुँचानेसे ही हमारे अहिंसा-व्रतका यथोचित पालन हो जाता है। हमारी अहिंसाकी प्रतिज्ञामें तो भविष्यमें भी प्रतिहिंसा करने की सम्भावना नहीं बचती। किन्तु जान पड़ता है कि दुर्भाग्यसे हममें से कुछ लोगोंने आज नहीं तो आगे चलकर बदला लेनेकी ठान रखी है।

मेरे आशयका गलत अर्थ न लगा लिया जाये। मैं यह नहीं कहता कि अहिंसाको व्यवहार-नियमके तौरपर मानने में आगे इस नीतिका त्याग कर चुकनेपर भी, प्रतिहिंसाकी सम्भावना नहीं रह जाती। किन्तु यदि संग्राममें हमारी विजय हुई तो निश्चय ही प्रतिहिंसाकी सम्भावना नहीं बचती। इसलिए जबतक हम अहिंसाको व्यवहार-नियमके तौरपर मानते हैं, तबतक हम अमली तौरपर अपने अंग्रेज हाकिमों तथा उनके सहयोगियों के साथ मित्रताका बरताव करनेपर बाध्य है। जब मैंने यह सुना कि भारतके कुछ स्थानोंमें अंग्रेज अथवा जाने-माने सहयोगी इधर-उधर बेखटके आ-जा नहीं सकते तो मुझे शर्म मालूम हुई। उस दिन मद्रासकी एक सभामें जो लज्जाजनक दृश्य दिखाई दिया, वह अहिंसाके पूर्ण अभावका सूचक था। जिन लोगोंने यह समझकर कि उस सभाके सभापतिने मेरा अपमान किया है उन्हें शोर-गुल मचाकर बोलनेतक नहीं दिया, उन्होंने न केवल खुदको बल्कि अपनी नीतिको भी कलंकित किया। उन्होंने अपने मित्र और सहायक श्री एन्ड्रयूजके[१] हृदयको चोट पहुँचाई। उन्होंने खुद अपने

  1. चार्ल्स फेयर एन्ड्रयूज (१८७१-१९४०); अंग्रेज धर्म प्रचारक, लेखक, शिक्षाविद् और गांधीजीके एक घनिष्ठ सहयोगी।