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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही उद्देश्यकी हानि की। यदि उक्त सभापति महोदयकी यह धारणा हो कि मैं धूर्त हूँ तो उनको वैसा कहनेका पूरा अधिकार था। किसीका अज्ञान हमारी उत्तेजनाका कारण नहीं होना चाहिए। और फिर असहयोगी तो बड़ी-बड़ी उत्तेजनाको भी तरह देनेकी प्रतिज्ञासे बँधे हुए हैं। उत्तेजनाका अवसर तो तब होगा जब मैं धूर्त व्यक्तिकी तरह आचरण करूँ। मैं मानता हूँ कि यदि वैसा अवसर आये तो हर असह्योगीको अहिंसाका अपना व्रत तोड़ देनेका पूरा हक होगा और कोई भी असहयोगी अपनेको गुमराह करनेके जुर्म में मेरी जानतक ले लेनेका पूर्ण अधिकारी होगा।

यह तो हो सकता है कि इतने मर्यादित रूपमें भी अहिंसाको अपनाना अधिकांश लोगों के लिए सम्भव न हो। हो सकता है कि उनका स्वार्थ रहते हुए भी लोगोंसे इस बात की आशा न रखी जाये कि जहाँ अपने प्रतिपक्षीको वे हानि नहीं पहुँचा रहे हैं, वहाँ हानि पहुँचानेका इरादा तक न करें। यदि स्थिति ऐसी हो तो ईमानदारीका यही तकाजा है कि हम अपने संघर्षके सिलसिले में 'अहिंसा' शब्दका प्रयोग करना छोड़ दें। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अगर हम अहिंसाको छोड़ें तो विकल्पमें तुरन्त हिंसाको अपनाना आवश्यक है। उस अवस्थामें होगा यह कि लोगोंसे अहिंसाके अनुशासनका पालन करनेके लिए नहीं कहा जायेगा। तब मुझ जैसा मनुष्य यह महसूस न करेगा कि चौरीचौराकी जिम्मेदारी मेरे सरपर है। इस मर्यादित अहिंसाकी विचारधारा तो उस गुमनाम अवस्थामें भी, फलती-फूलती रहेगी और उसके कन्धोंसे उतरदायित्वका वह गुरुतर भार भी नहीं रहेगा, जिसे वह आज वहन कर रही है।

परन्तु यदि अहिंसाको ही इस राष्ट्रका व्यवहार-धर्म बने रहना है, तो मानव समाज और राष्ट्र दोनोंकी प्रतिष्ठाके विचारसे हमें उसका अक्षरशः तथा निष्ठाके साथ पालन करना ही पड़ेगा।

और यदि हम इस व्यवहार-धर्मके अनुसार चलनेका इरादा करते हों, यदि हम उसके कायल हों, तो हमें तुरन्त ही अंग्रेज तथा सहयोगी भाइयोंका समाधान करना चाहिए; और उनसे इस बातका प्रमाणपत्र हासिल कर लेना चाहिए कि वे लोग हमारे बीच में अपने-आपको पूरी तरह सुरक्षित समझते हैं और उनके तथा हमारे विचारोंमें तथा राजनीतिक दृष्टिमें जमीन-आसमान का फर्क होते हुए भी वे हमें अपना मित्र समझते हैं। अपने मान्य अतिथियोंके तौरपर अपनी राजनीतिक सभाओं में हमें उनका स्वागत करना चाहिए। जिन सभाओंका सम्बन्ध किसी दल या मतसे न हो, वहाँ तो हम उनको अपने साथियोंकी तरह ही मानें। हमें ऐसी सभाओंका आयोजन भी करना चाहिए। हमारी अहिंसासे हिंसा, द्वेष और दुर्भाव निष्पन्न नहीं होने चाहिए। दूसरे मर्त्य बान्धवोंकी तरह हमारी कसौटी भी हमारे अपने कार्य ही होंगे। स्वराज्यप्राप्ति के लिए अहिंसात्मक कार्यक्रम बनानेका मतलब ही अपना काम अहिंसात्मक रीतिसे चलाने की योग्यता है। और इसका अर्थ है आज्ञा-पालनका भाव पैदा करना। श्रीयुत चर्चिलका[१], जो कि केवल पशु-बलके ही मन्त्रको जानते हैं, यह कहना बहुत ठीक है कि आयरलैंडका प्रश्न भारतके प्रश्नसे अलग प्रकारका है। उनके कथनसे यही

  1. सर विन्स्टन चर्चिल (१८७४-१९६५) ब्रिटिश राजनीतिश; और लेखक।