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अहिंसा

आशय निकलता है कि आयरलैंडवालों ने हिंसाके मार्गपर चलकर स्वराज्य प्राप्त किया है, अतएव यदि आवश्यकता पड़ी तो वे हिंसा-बलके द्वारा उसकी रक्षा भी कर सकेंगे। इसके विपरीत यदि भारत वास्तवमें अहिंसाके द्वारा स्वराज्य प्राप्त कर ले, तो उसे प्रधानतः अहिंसात्मक उपायोंके द्वारा ही उसकी रक्षा भी करनी होगी। और इसे श्री चचिल तभी सम्भव मानेंगे जब भारत अपनी योग्यता इस सिद्धान्तको अपने उदाहरण द्वारा प्रत्यक्ष करके सिद्ध कर दे। और यह बात तबतक अशक्य है जबतक समाजमें अहिंसाका इतना प्रवेश नहीं हो जाता कि जिससे लोग अपने सामुदायिक अर्थात् राजनीतिक जीवनमें अहिंसाको अपना लें; दूसरे शब्दोंमें फौजी हुकूमतके बजाय, जैसा कि आज है, देशमें गैरफौजी हुकूमतकी प्रधानता हो जाये।

अतएव अहिंसात्मक साधनोंसे स्वराज्य प्राप्त करनेके दौरान अव्यवस्था और अराजकताको थोड़े समयके लिए भी कोई स्थान नहीं मिल सकता। अहिंसाके बलपर प्राप्त स्वराज्य तो एक उत्तरोत्तर शान्तिपूर्ण क्रान्ति होगी—ऐसी विकासशील क्रान्ति कि सत्ता चन्द लोगोंके हाथोंसे निकलकर सहज ही जनताके प्रतिनिधियोंके हाथोंमें इस तरह जा पहुँचेगी जैसे किसी सुपोषित वृक्षकी डालसे पूरी तरह पका हुआ फल टपक पड़ता है। मैं फिर कहता हूँ कि सम्भव है वह घड़ी आये ही नहीं; फिर भी मैं जानता हूँ कि अहिंसाका इससे घटकर कोई अर्थ ही नहीं हो सकता। और यदि वर्त्तमान कार्यकर्त्तागण अपेक्षाकृत इससे अधिक शान्तिमय वातावरण तैयार हो जानेकी सम्भावनाको न मानते हों, तो उन्हें चाहिए कि वे अहिंसात्मक कार्यक्रमको तिलांजलि दे दें और इससे बिलकुल भिन्न दूसरा कार्यक्रम तैयार कर लें। यदि इस खयालको मनमें छिपाये हुए कि आखिरको तो हमें शस्त्रास्त्रोंके बलपर ही अंग्रेजोसे अधिकार छीनना है; हम कार्यक्रमको उठायेंगे तो हम अपने अहिंसाकेदावेके प्रति झूठे ठहरेंगे। यदि हमें अपने इस कार्यक्रमपर विश्वास है, तो हमें यह मानना ही पड़ेगा कि अंग्रेज लोग जितने शस्त्रबलसे निस्सन्देह प्रभावित हो जाते हैं, उतने प्रेमबलसे नहीं होंगे, ऐसी बात नहीं है। जो लोग इसके कायल नहीं हैं उनके लिए दो रास्ते हैं। एक तो है कौंसिलें, जो निस्सन्देह उनके लिए अनुभवकी पाठशालाएँ हैं, जहाँ उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमानित होते रहने के बाद अक्ल आयेगी; दूसरा विकल्प है ऐसी भयानक और त्वरित घटित होनेवाली रक्तमयी क्रान्ति, जैसी संसारमें कभी देखी नहीं गई। ऐसी क्रान्तिमें शरीक होनेकी मुझे जरा भी इच्छा नहीं है। और मैं स्वेच्छापूर्वक उसे आगे बढ़ानेका साधन बननेको तैयार नहीं हूँ। मेरी समझके अनुसार हमारे सामने दो ही विकल्प हैं—या तो हम अहिंसाको और उसके आवश्यक अंगके रूपमें असहयोगको अपनायें, या फिर अनुक्रियात्मक सहयोगकी नीति अपनायें अर्थात् सहयोगके साथ-साथ रोड़े अटकानेकी नीति अपनायें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९–३–१९२२