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और निर्जीव देशके लिए स्वराज्यका क्या अर्थ हो सकता है? आप हिन्दुस्तानकी विराट् रूपमें कल्पना करें। धड़पर स्थित मस्तक और मस्तकमें निहित बुद्धिको इस बातकी क्या खबर हो सकती है कि यह [विराट] शरीर पाँवोंसे जड़ होने लगा है? हम लोग तो जो अपेक्षाकृत भले-चंगे हैं, गाँवोंमें हो रहे नाशको देख नहीं सकते, लेकिन अर्थशास्त्री अथवा गाँवोंमें भ्रमण करनेवाले लोग देख सकते हैं कि हिन्दुस्तान-रूपी विराट् शरीरके पाँव सूखने लगे हैं। और उनके सूखनेकी यह क्रिया लगातार चल रही है। इसे रोकने का उपाय खादी है, मिलका कपड़ा नहीं। देशी मिलोंके कपड़े से विदेशी मिलके कपड़ेका बहिष्कार भले ही सम्भव हो, लेकिन इससे हिन्दुस्तानके करोड़ों भूखोंकी भूख नहीं मिट सकती, कदापि नहीं मिट सकती। यह तो केवल खादीके द्वारा ही सम्भव है। हिन्दुस्तान में पैसे की कमी है, क्योंकि कामकी कमी है। शहरोंमें जो मजदूरी मिलती है वह पर्याप्त नहीं है। सात लाख गाँवोंको स्वतन्त्र करवाना है। गाँवोंमें ही ग्रामीणोंको उपयुक्त धन्धा मिलना चाहिए। ऐसा धन्धा केवल चरखा ही प्रदान कर सकता है। इसीलिए मैं उसे अन्नपूर्णा कहता हूँ। हमें उसीका प्रचार करना है उसका अर्थात् चरखेसे सम्बन्धित आगे और पीछेकी सभी क्रियाओंका। उसमें हजारों व्यक्ति काम करने लगें तभी हम उसका प्रचार करने में सफल हो सकते हैं। हमारा काम तो केवल खादी आन्दोलनको संगठित करना है।

मिलें तो पहलेसे ही संगठित हैं। उन्हें स्वयंसेवकोंकी जरूरत नहीं है। हीरेका व्यापारी अपने मार्गको खोज निकालता है, उसकी मदद के लिए स्वयंसेवक मण्डलकी स्थापना नहीं करनी पड़ती। ठीक यही बात मिलोंके सम्बन्धमें है। देशी मिलें चाहें तो विदेशी कपड़े को रोक सकती हैं। यदि वे स्वार्थको गौण और हिन्दुस्तानके हितको प्रधान पद दें, अपने व्यापार में प्रामाणिकता लायें, नफेकी ओर कम ध्यान देकर मालकी उत्तमताकी ओर अधिक ध्यान दें तो इसमें सन्देह नहीं कि आज उनके मालकी जितनी खपत होती है उससे कहीं अधिक हो। वस्तुतः देखा जाय तो खादी इस समय मिलोंके साथ होड़ नहीं करती है। अप्रत्यक्ष रूपसे भले ही खादीका कुछ असर हुआ हो, लेकिन हम जब अभीतक करोड़ रुपये की खादी नहीं बना पाये हैं तब उसके होड़ करने की बात ही कहाँ उठती है? खादीको अभी स्थायी स्थान नहीं मिला है। उसके लिए जबतक भगीरथ प्रयत्न नहीं किया जायेगा तबतक वह अपने प्राचीन साम्राज्यका उपभोग नहीं कर सकती। ऐसी हालत में मेरी समझ में नहीं आता कि खादीके साथ मिलके कपड़े की बात भी कैसे हो सकती है।

कांग्रेस तो मूक लोगोंकी आवाज है अथवा होनी चाहिए। कांग्रेसका कार्यक्षेत्र तो वस्तुतः गरीबों के बीच में है, लेकिन वह उनके पास नहीं पहुँचती, पहुँच भी नहीं सकती। इसलिए जो लोग अनजाने ही गरीबोंपर सवारी कर रहे हैं उन्हें वह सावधान करती है, उनके लिए खादीका उद्योग कर रही है। कहने का तात्पर्य यह कि कांग्रेसके अनुयायियों के लिए तथा जिन लोगोंतक कांग्रेसकी आवाज पहुँच सकती है उनके लिए मिलोंका कपड़ा बिलकुल त्याज्य है, इसमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है।

इस कार्य में मैं तो हमेशा मिल मालिकोंकी सहायता माँगता आया हूँ। खादीकी प्रवृत्तिका वे हृदयसे स्वागत करें, उसे प्रोत्साहन दें, स्वयं मिलोंका कपड़ा पहननेके