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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दूसरों कतवायें और बनवायें। अनाजके सम्बन्ध में ऐसा उलटा न्याय धनवान भी लागू नहीं करते। वे तो अपने घरमें ही पकाते हैं, बाजारसे भोजन नहीं मँगवाते, इतना ही नहीं बल्कि बाजारसे भोजन मँगाना गृहस्थके लिए अशोभनीय माना जाता है। ठीक ऐसी ही बात पहले सूतके सम्बन्धमें भी मानी जाती थी। अब फिर ऐसा ही क्यों नहीं हो सकता?

[गुजराती से]
नवजीवन, ४–५–१९२४
 

३९२. चरखेके प्रति उदासीनता

एक सज्जन काशीजीसे लिखते हैं कि बोर्ड इत्यादिमें हमारे लोगोंके जाने से कुछ लाभ नहीं हुआ; बल्कि रचनात्मक काम थम गया है। वे यह भी लिखते हैं कि इन लोगोंकी चरखेके प्रति उदासीनता है। बहुतेरे लोगोंका विश्वास भी चरखेमें नहीं है। जब इन सज्जनोंसे कुछ कहा जाता है तो वे उत्तर देते हैं—हम गांधीजीके कहने पर बोर्ड में गये हैं।

प्रथम बात तो यह है कि मैं नहीं चाहता कि कोई शख्स मेरे कहने से कुछ भी करे। जो कुछ करे अपनी ही रायके मुताबिक करे। हम स्वतन्त्र बनना चाहते हैं। हम किसी व्यक्तिके, फिर वह कैसा ही प्रभावशाली हो, गुलाम बनना नहीं चाहते। मेरी राय तो ऐसी है कि लोकल बोर्ड इत्यादिमें जानेकी खास आवश्यकता नहीं है। यदि हम जायें तो सिर्फ रचनात्मक काम करने के इरादेसे। इसलिए यदि यह काम भली-भाँति न हो सके तो हमें ऐसी संस्थाका त्याग कर देना चाहिए।

मैं जानता हूँ कि चरखेकी शक्ति में बहुतसे असहयोगियोंका अविश्वास है। उनको विश्वास दिलाने का एक ही उपाय है कि जिनको विश्वास है वे अधिक उत्साहसे खुद चरखा चलायें और दूसरोंको प्रोत्साहित करें। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि चरखेके बिना स्वराज्यका मिलना और उसे कायम रखना असम्भव है। हाँ, एक बात है। सम्भव है कि स्वराज्य के मानी हम सबके दिलमें एक न हों। मैं तो एक ही अर्थ करता हूँ—हिन्दुस्तानकी कंगालीका मिटना और प्रत्येक स्त्री-पुरुषका आजाद बनना। हिन्दुस्तान के भूखसे पीड़ित भाई-बहनोंसे पूछो। वे कहते हैं कि हमारा स्वराज्य हमारी रोटी है। सिर्फ काश्तकारीसे हिन्दुस्तान के करोड़ों किसान अपना पेट नहीं भर सकते। उनके लिए किसी-न-किसी दूसरे उद्यमकी सहायता आवश्यक है। ऐसा सार्वजनिक उद्यम चरखेके द्वारा ही मिल सकता है।

"भूखे भगति न होइ गोपाला"

दूसरे सज्जन लिखते हैं कि जिन्होंने असहयोग आन्दोलनके कारण अपना धन्धा छोड़ दिया है उनके निर्वाहका कुछ-न-कुछ प्रबन्ध होना चाहिए। इस प्रश्नका जल्दी हल होना मुश्किल है, और नहीं भी है। यदि सब लोग रचनात्मक कार्यका मर्म समझ