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पत्र : वसुमती पण्डितको

लें तो भूखका प्रश्न उठ ही नहीं सकता। यदि रचनात्मक कार्यमें श्रद्धा न हो तो भूखका प्रश्न सदाके लिए रह जायेगा। मेरा दृढ़ मन्तव्य है कि जिनको चरखे और करघे में विश्वास है उन्हें आजीविका मिल सकती है। देशमें मध्यम वर्गकी जो कठिनाइयाँ हैं उनका इलाज उद्यमसे ही हो सकता है। हमारे अन्दर कितने ही बुरे रिवाज हैं। उन्हें हमको छोड़ना होगा। एक आदमी यदि मजदूरी करे और दूसरे दस कुछ न करें तो बुनाईके द्वारा हमें आजीविका नहीं मिल सकती। और ऐसा भी न होना चाहिए कि सब लोग महासभाका ही मुँह देखते रहें। स्वराज्य में यह भी तो होना चाहिए कि हम सब स्वावलम्बी बनें। इसीका नाम आत्मविश्वास है। भक्तवत्सल गोपालने अपनी 'गीता' में प्रत्येक मनुष्यके लिए आजीविकाकी एक शर्त रखी है। जो भूख मिटाना चाहता है उसे यही करना चाहिए। यज्ञके कई अर्थ हैं। एक आवश्यक अर्थ मजदूरी है। जो मनुष्य मजदूरी नहीं करता और खाता है उसको भगवान् ने चोर कहा है।

हिन्दी नवजीवन, ४–५–१९२४
 

३९३. पत्र : वसुमती पण्डितको

रविवारकी रात
वैशाख सुदी १ [४ मई, १९२४][१]

चि॰ वसुमती,

मुझे पत्र लिखना बन्द करने की जरूरत नहीं है। जब तुम्हारा पत्र नहीं मिलता तब मैं उलटा विचार में पड़ जाता हूँ। इतना ही काफी है कि मुझे अपनी फुरसतसे उत्तर देनेकी छूट मिल जाये। मेरा स्वास्थ्य सुधरता जा रहा है।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ६१४) से।
सौजन्य : वसुमती पण्डित
  1. स्वास्थ्यके उल्लेखसे ऐसा लगता है कि यह पत्र १९२४ में लिखा गया होगा। इसके अतिरिक्त वैशाख सुदी १ रविवार ४ मई, १९२४ को पड़ी थी।