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परिशिष्ट

 

परिशिष्ट १
हकीम अजमल खाँका पत्र

अहमदाबाद
१७ मार्च, १९२२

प्यारे महात्माजी,

आपका साबरमती जेलसे लिखा खत मुझे मिल गया है। उसमें आपने मेरी बहुत तारीफ की है। आपकी इस मेहरबानी के लिए सच्चे दिलसे आपका अहसान मानता हूँ। मैं सचमुच उसके लायक हूँ या नहीं, यह दूसरी बात है, जिसकी चर्चा में मैं पड़ना नहीं चाहता।

श्री शंकरलाल बैंकर जेल में आपके साथ हैं, यह जानकर मुझे खुशी हुई। उन्हें आपसे बहुत मुहब्बत है और उनमें ऐसी खूबियाँ हैं जिनके कारण वे आपके अजीज बन गये हैं। मुझे भरोसा है कि जेल में उनके साथ रहने से आपको और भी खुशी और तसल्ली होगी।

लेकिन मैं तो आपकी गिरफ्तारीपर तभी खुश हो सकता हूँ जब मैं देखूँ कि देश की जनता, आपके प्रति अपनी गहरी इज्जत जताने के लिए, राष्ट्रीय आन्दोलनमें जितनी दिलचस्पी आपके जेलसे बाहर रहनेपर लेती थी, उससे ज्यादा दिलचस्पी अब लेती है। मगर मुझे यह देखकर बेहद खुशी होती है कि आपकी गिरफ्तारीपर देशने पूरा अमन बनाये रखा। इससे साफ जाहिर होता है कि देशमें अहिंसाकी वह भावना खूब फैल गई है, जो हमारी कामयाबी के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी जिन्दगी के लिए साफ हवा।

मुझे इस बात में जरा भी शक नहीं कि भारतकी तरक्कीका राज हिन्दुओं, मुसलमानों और दूसरी जातियोंकी एकतामें छिपा हुआ है। ऐसी एकता नीतिपर मुनहसिर नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मेरी राय में वह तो सिर्फ लड़ाईको कुछ वक्त के लिए बन्द करने जैसी होगी और वह शायद मुश्किलसे ही हमारी मौजूदा जरूरतोंके लिए काफी हो। लेकिन मैं साफ देख रहा हूँ कि दोनों बड़ी जातियाँ रोज-ब-रोज एक-दूसरे के नजदीक आ रही हैं और दोनों जातियोंमें मजहबी तअस्सुबसे बिलकुल ऊपर उठे हुए लोगोंकी तादाद चाहे बहुत न हो, फिर भी मुझे यकीन है कि देशने सच्ची एकताका रास्ता पा लिया है और वह खूब जमे हुए कदमोंसे उसपर चलकर अपनी मंजिलकी ओर आगे बढ़ेगा। मैं अपने देशमें रहनेवाली जातियोंकी एकताको इतना कीमती मानता हूँ कि यदि देश दूसरे सभी कामोंको छोड़कर सिर्फ उस एकताको ही हासिल कर ले,