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परिशिष्ट ३
मगनलाल गांधीसे भेंट[१]

इस महीने की पहली तारीखको जो मण्डली गांधीजीसे मिलने गई, उसमें मैं भी था।

हमने महात्माजी से पूछा, आपका दैनिक कार्यक्रम क्या है? उनके उत्तरसे स्पष्ट सन्तोष झलकता था उन्होंने कहा कि मैं हमेशा सुबह चार बजे उठता हूँ और सुबह का समय प्रार्थना और चिन्तनमें लगाता हूँ . . .। जबतक अच्छी तरह दिन नहीं निकल आता, महात्माजीको कुछ भी काम करनेको नहीं रहता क्योंकि शायद उन्हें कोई चिराग नहीं दिया गया है। सुबह स्नानादि करके वे सूत कताई और रुई-धुनाईका अपना प्रिय कार्य शुरू करते हैं. . .।

हमें अपना नित्यका कार्यक्रम बताते समय उन्होंने अपने पैरोंकी तरफ देखा जिनपर रुईके बारीक रेशे चिपके थे। उन्होंने कहा : "मैं अभी रुई धुनाईके कामसे उठकर आया हूँ।"

इस बार सभी उपस्थित लोगों, भेंटकर्त्ताओं और कैदीके लिए भी कुर्सियाँ रखी गई थीं। परन्तु कुर्सीपर बैठनेका बार-बार आग्रह किये जानेपर भी, उन्होंने जबतक हम बात करते रहे तबतक खड़े रहने में ही आनन्द माना। हर बार आग्रह करनेपर उन्होंने यही कहा, मैं बिलकुल ठीक हूँ। कोई भी समझ सकता था कि उन्होंने स्वेच्छापूर्वक जिस अनुशासनको अंगीकार किया, वह उनके लिए आनन्दकी ही बात थीं।. . .

जब महात्माजीने भेंटकी समाप्तिपर दी गई यह चेतावनी सुनी कि यहाँ जो-कुछ हुआ है उसमें से कोई भी बात प्रकाशित नहीं की जानी चाहिए तो उन्होंने मनोहारी मुस्कानके साथ सुपरिन्टेन्डेन्टसे पूछा, क्या यह बात भी नहीं कि गवर्नरने कुछ कारणोंसे, जिन्हें वे ही जानते हैं, पत्रोंपर रोक लगा दी है?"

"नहीं।"

"यह भी नहीं कि मैं ठीक हूँ?"

इसका उत्तर था, "नहीं, कुछ भी नहीं।"

कैदीने दरवाजे की ओर वापस मुड़ते हुए कहा, भविष्य में मेरी भेंट करनेकी सुविधा रहे या छिने इसका निर्णय में भेंटकर्त्ताओंपर ही छोड़ता हूँ।. . .

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०-७-१९२२
  1. मगनलाल गांधीसे यह भेंट १ जुलाई, १९२२ को हुई थी। उन्होंने इसके बारेमें "जेलमें महात्माजीके सुख-साधन" शीर्षकसे जो लेख लिखा था उसे यहाँ अंशतः उद्धृत किया जा रहा है।