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परिशिष्ट

यह आश्वासन देने की जरूरत नहीं कि हम यथासम्भव अत्यन्त अनुशासनपूर्ण ढंगसे जलूस निकालने की कोशिश करेंगे। इस बीच भाषणों, पर्चोंके वितरण तथा व्यक्तिगत मुलाकातों द्वारा पुराणपन्थी लोगोंको अपनी तरफ मिलाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। यदि आप हमें एक सन्देश भेज देंगे तो हमें उससे नया उत्साह मिलेगा।

[अंग्रेजी से]
हिन्दू, २५–३–१९२४
 

परिशिष्ट १०
सी॰ विजयराघवाचार्यका पत्र

आराम
सेलम
(दक्षिण भारत)
२३ मार्च, १९२४

प्रिय महात्माजी,

मुझे आज आपका पत्र[१] मिलनेपर बहुत प्रसन्नता हुई और मैं विशेष रूपसे आपको इस बात के लिए धन्यवाद देता हूँ कि अपने स्वास्थ्यकी इस हालत में भी आपने वह लम्बा वक्तव्य पढ़ा। मैं अपने वक्तव्य में अपनी बात शायद ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर सका हूँ। आपकी उत्साह बढ़ानेवाली स्पष्टवादिताको देखते हुए मुझे आशा है कि आप मुझे इतना तो कहने देंगे हीं कि आपने मेरे वक्तव्य के महत्त्वपूर्ण अंशोंका अर्थ ठीक नहीं समझा है। आपको यह बात स्पष्टतः बतानेके लिए जितना समय और स्थान इस समय मेरे पास है, उससे ज्यादा चाहिए। मेरा स्वास्थ्य पूरी तरह ठीक नहीं है, अतः मैं डाक्टरकी सलाहसे अधिकतर बिस्तर में पड़ा रहता हूँ और खाने में पतली चीजें ही लेता हूँ। फिर ऐसे समय जब आपके लिए आराम बेहद जरूरी है, आपको तंग करना वांछनीय भी नहीं है, किन्तु मैं एक-दो उदाहरण तो दूँगा ही।

आप कहते हैं, "आपके निष्कर्षसे यह अर्थ भी निकलता है कि स्वराज्य सिर्फ ब्रिटिश संसद से ही मिल सकेगा। इस वाक्यसे तो मुझे आश्चर्य ही हुआ है। इस वक्तव्य के तर्ककी दिशा और ध्वनि वही है जो मेरे जीवनमें अबतक रही है और वह आपके उक्त कथनसे सर्वथा विपरीत है। हमें स्वतन्त्रता किसी राष्ट्रसे दानके रूप में मिल सकती है, मेरा ऐसा हीन विचार कभी नहीं था और न कभी हो सकता है। मैंने अपने इसी वक्तव्य में स्पष्ट रूपसे इस दृष्टिकोण से अपना गहरा मतभेद प्रकट किया है। मुझे खेद है कि मैंने अनुच्छेदोंपर संख्या नहीं डाली; लेकिन मैंने इस विषयपर जो कुछ कहा है उसे आप वक्तव्यमें आसानीसे ढूँढ़ सकेंगे। आप यह भी गौर

  1. १९ मार्च, १९२४ का।