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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करेंगे कि मैं नरमदलीय और राष्ट्रवादी दोनों ही तरहके लोगोंको उन लोगोंसे अलग मानता हूँ जिन्होंने स्वराज्यका आपका सिद्धान्त अपनाया है। मैंने वक्तव्यमें कहा है कि नरमदलीयों और राष्ट्रवादियोंके पास स्वतन्त्रता लेनेका साधन नहीं है। आप जानते हैं कि कानून और राजनीतिकी भाषामें इस शब्दका अर्थ क्या होता। हमारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रामाणिक रूपसे घोषित तरीके केवल दो हैं—इंग्लैंडसे दानके रूपमें प्राप्त करना या तलवारके जोरसे लेना। मैंने इन दोनों तरीकोंका उल्लेख किया है और बादमें कहा है कि हमने इन दोनों तरीकोंकी बजाय एक तीसरे तरीकेकी खोज की है और वह है इस तरहका नैतिक दबाव जिसका प्रतिरोध न इंग्लैंड कर सकेगा, और न उसमें ऐसा करनेकी हिम्मत ही है। मैंने इसीको 'साधन' कहा है। फिर भी जब आप मुझपर इस विचारका आरोप करते हैं कि "हमें स्वराज्य इंग्लैंडसे अपने-आप मिल जायेगा" तो मुझे अवश्य ही दुःख होता है। मैं इस तर्कको विशद बना सकता हूँ; लेकिन मैं उसे अनावश्यक मानता हूँ। मैं आपसे यह हार्दिक अनुरोध करके ही अपना मन समझा लूँगा कि आप मेरा वक्तव्य और श्री सी॰ एफ॰ एन्ड्रयूजको कुछ दिन पहले भेजी गई मेरी कतरनें फिर पढ़ें। आप हमेशा यह ध्यान रखें कि मैं कोई विद्वान् नहीं हूँ, अतः कृपापूर्वक मेरे बिखरे विचारोंमें से, जो तर्ककी दृष्टिसे अधिक क्रमबद्ध नहीं हैं, मेरा पूरा-पूरा अभिप्राय निकालें। आपने कहा है कि मेरे स्वराज्यकी संगति जब चाहें तब ब्रिटिश साम्राज्यको छोड़ने की स्वतन्त्रतासे नहीं बैठती। इस सम्बन्ध में मेरा कहना केवल इतना ही है कि आप मेरे तर्कोंकी सामान्य ध्वनि और दिशा तथा मेरे नागपुरके भाषणको देखें। आप इन सबसे आसानीसे समझ सकते हैं कि मेरी कल्पनाके स्वराज्यमें अंग्रेजोंसे 'आप चलते बनें' यह कहनेकी स्वतन्त्रता और क्षमता आ जाती है। आप अच्छी तरह जानते हैं कि कनाडाके लिबरल दलके नेता और फ्रांसीसी प्रधानमन्त्री स्व॰ सर विल्फ्रेड लरियेने कहा था कि यदि कनाडा अपनी आजादी की घोषणा कर देता है तो इंग्लैंड एक गोली भी नहीं चला सकता। ब्रिटेनके उपनिवेश साम्राज्यसे जिस समय चाहें सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिए स्वतन्त्र हैं, यह नीति अब विवादास्पद नहीं रहीं वरन् सर्वमान्य हो गई है।

अस्पृश्यता के विषयमें भी आप मेरा मत पूरी तरह नहीं समझे हैं। एक सामान्य धारणा, विशेष रूपसे विदेशों में व्याप्त है कि हिन्दुओंमें पंचमवर्णी लोगों और नीची जातियोंकी अस्पृश्यताका सिद्धान्त उच्चवर्णी हिन्दुओंने निकाला है। मैं केवल इस भ्रान्त और दुष्टताभरी धारणाको दूर करना चाहता हूँ। यदि आप मुझसे असहमत हों तो मैं इसके विरोध में प्रमाण जानना चाहता हूँ। फिर इन अभागे वर्गोंपर लागू अस्पृश्यताका सिद्धान्त वर्ण और परिवारके भीतर प्रचलित अस्पृश्यताके सिद्धान्तका ही स्पष्ट और तर्कसम्मत विस्तार और अत्यन्त अनुदार ढंगका विकास है। दोनों ही दशाओं में इस सिद्धान्तका आधार यह विचार है कि छूना यानी अशुद्ध और अपवित्र होना है। मेरा अभिप्राय केवल इतना ही था। मेरा आशय यह था कि दोनों विचार एक ही प्रकारके हैं; किन्तु उनमें मात्राका अन्तर है। शायद आपको मालूम नहीं है कि दक्षिण भारतमें रजस्वला स्त्रीके समीप जाना वर्जित है, चाहे वह अपनी माँ, बहन या बेटी ही क्यों न हो। यदि हम अनजाने उसके समीप चले जाते हैं तो हमें बिलकुल-