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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ देखूँ तो मैं इतना ही न करूँगा कि आक्रमणकारी और उस पीड़ित व्यक्तिके बीचमें कूद पड़ें और इस प्रकार ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दूँ जिससे उसके सम्मुख एकके बजाय दो पीड़ित व्यक्ति हों, बल्कि मैं उसे पटककर उस पीड़ित व्यक्तिकी और अपनी रक्षा करनेका प्रयत्न करूँगा। फिर यदि कोई मुझपर आक्रमण करे तो मैं आक्रमणकारीसे अपनी रक्षा, आवश्यक होनेपर, बलप्रयोग करके भी करूँगा और मेरा वह बलप्रयोग विशेष स्थितियों में आक्रमणकारी के लिए प्राणान्तक भी हो सकता है। मुझे इस तरह के दूसरे उदाहरण देने की जरूरत नहीं है। ऐसे उदाहरण तो आसानी से सोचे जा सकते हैं। जहाँतक विचारकी अहिंसाका सम्बन्ध है, यह स्पष्ट है कि जो मनुष्य विशेष अवसरोंपर वास्तविक हिंसा करनेके लिए तैयार हो वह हिंसा के विचारसे सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। अहिंसात्मक असहयोग में सम्मिलित होकर मैंने जो जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है वह केवल इतनी ही है कि मैं सरकारके विरुद्ध असहयोग के कार्यक्रमको कार्यान्वित करने में किसी तरह की हिंसा नहीं करूँगा अथवा उसकी बात भी नहीं सोचूँगा। "अहिंसाका पूरा पालन किया जाये; किन्तु उसका प्रयोग जिस उद्देश्यके लिए वह स्वीकार की गई है उसीतक सीमित रखा जाये", मैं महात्माजी के कथनका अर्थ इतना ही समझता हूँ। यदि कोई सरकारी अधिकारी ऐसे मामलों में जिनका कांग्रेससे कोई सम्बन्ध नहीं है, मेरे साथ ऊपर बताये गये बदमाशकी तरह व्यवहार करना चाहे तो मैं उस अधिकारीसे वैसे ही निबदूँगा, जैसे उस बदमाशसे। जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैं अहिंसा के सिद्धान्तका उपयोग जिस विशिष्टतम उद्देश्यके लिए मैंने उसे स्वीकार किया है, उसीतक सीमित मानता हूँ।

महात्माजी कहते हैं कि कौंसिलोंमें जाना "हिंसा में भाग लेने के समान है।" मेरे खयालसे इसमें इस तथ्य की ओर संकेत किया गया है कि कौंसिलें हिंसा की नींवपर बनी सरकार द्वारा स्थापित की गई संस्थाएँ हैं। मैं मानता हूँ कि इस अर्थसे ऐसी सरकारके शासनमें रहनेवाला कोई भी मनुष्य हिंसा में भाग लेनेसे नहीं बच सकता । किन्तु ऐसी सरकार के शासन में रहना और जीवन-रक्षा के लिए अत्यावश्यक साधनों को अपनाना भी "हिंसा में भाग लेने के समान" होगा। हिसाकी नींवपर बनी सरकार के शासनमें रहने मात्रकी अपेक्षा कौंसिलोंमें जाना हिंसामें अधिक सीधा भाग लेना है या नहीं, यह प्रश्न केवल मात्राका है और इसका उत्तर जिस उद्देश्यसे लोग कौंसिलोंमें जाते हैं, उस उद्देश्यपर निर्भर करता है।

गांधीजी ने इस बात की सचाई में शंका प्रकट की है कि "अहिसांका जैसा आत्यन्तिक अर्थ मैं करता हूँ वैसा दूसरा कोई नहीं करता और ज्यादातर कांग्रेसी अहिंसाकी परिभाषा केवल अपने विरोधीको शारीरिक क्षति न पहुँचाना ही करते हैं।" इस विचारको सिद्धान्त-रूप में माननेवाले कुछ लोग हो सकते हैं; किन्तु में महात्माजी के ऐसे एक भी अनुयायीको नहीं जानता जो इसपर आचरण करता हो। यह सच है कि मैं अहिंसाको जिस सीमित अर्थ में मानता हूँ उसमें भी वह वाणी और कर्म दोनोंकी अहिंसा होनी चाहिए और वह केवल शारीरिक क्षति न पहुँचानेतक ही सीमित नहीं हो सकती। किन्तु विचारकी अहिंसा पूर्णतः अव्यावहारिक समझकर अमान्य