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परिशिष्ट

की जानी चाहिए। यदि हम ऐसा न करेंगे तो अपने ही बुने भ्रमके जाल में फँस जायेंगे और फिर हमारे लिए उसमें से निकलना असम्भव हो जायेगा।

(२) असहयोग—मैं स्वीकार करता हूँ कि कांग्रेसकी वर्तमान गति-विधियों में मुझे असहयोगका कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। यह सम्भव है कि उनके परिणाम-स्वरूप भविष्य में कभी असहयोग किया जा सके; किन्तु वे स्वतः तो किसी भी तरह असहयोग नहीं मानी जा सकतीं। केवल बारडोलीका कार्यक्रम हमारे सम्मुख है, किन्तु उसमें भी कोई ऐसी बात नहीं है जो किसी भी अर्थ में सरकारसे वास्तविक असहयोग मानी जा सके। महात्माजी कहते हैं कि त्रिविध बहिष्कार असफल नहीं हुआ है क्योंकि वकीलोंकी प्रतिष्ठा चली गई है, माँ-बापोंका सरकारी स्कूलोंकी शिक्षासे विश्वास उठ गया है और कौंसिलोंमें कोई आकर्षण नहीं रह गया है। मैं यह सब स्वीकार करता हूँ और यह भी मानता हूँ कि ऐसी और भी कई चीजें हैं जो अब नहीं रही हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि यह सब बहिष्कारपर अमल करनेसे हुआ है या यह महात्माजी के उपदेशोंका परिणाम है। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि स्थिति बहिष्कार की बात सोचनेसे पहले जैसी थी, अब उससे भी ज्यादा बुरी है? वकीलों और स्कूल जानेवाले छात्रोंकी संख्या बहुत-कुछ बढ़ गई है और कौंसिलों में जानेवाले लोगोंकी संख्या जितनी थी, अब भी उतनी है। अन्तर केवल इतना ही है कि जहाँ १९२० से पहले लोग वकालतका धन्धा करते हुए, अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलों में भेजते हुए और कौंसिलोंमें जाते हुए यह विश्वास करते थे कि उनका कार्य उचित है, वहाँ १९२१-२३में वे इन्हीं कामोंको करते हुए यह समझते और विश्वास करते हैं कि वे अपने प्रति ही नहीं, बल्कि समस्त राष्ट्र के प्रति भारी अन्याय कर रहे हैं। क्या इससे लोगोंका नैतिक स्तर ऊँचा उठा है? मेरे विनम्र मतमें इस त्रिविध बहिष्कारसे केवल इतना ही सिद्ध हुआ है कि जिन ऊँचे आदर्शो पर चलने के लिए लोग तैयार न हों उन आदर्शोंका प्रचार करनेसे निश्चित हानि ही हो सकती है। ईमानदारी यह होगी कि हम इस त्रिविध बहिष्कारकी असफलताको स्वीकार कर लें और इस बहिष्कारको निसंकोच छोड़ दें। यदि स्वराज्यवादी लोग यह न समझते कि महात्माजी के उपदेशोंके विरुद्ध जनसाधारणको नहीं ले जाया जा सकता तो वे इस कार्यको जरूर करते। उसके बाद दूसरा कार्य जिसे वे कर सकते थे वह था कौंसिलों में सच्चे असहयोगका तत्त्व दाखिल करना। इस कार्य में उनको बहुत अधिक सफलता मिली है, इसमें कोई शंका नहीं हो सकती।

अब मैं कौंसिल प्रवेशके विरुद्ध दिये गये महात्माजी के तर्कोंका विवेचन करूँगा। उन्होंने यह कहकर कि "विधान सभाओं में प्रवेश करने से स्वराज्यकी ओर प्रगति रुकी है—स्वराज्यवादियोंपर एक गम्भीर और भारी लांछन लगाया है। मैं सादर किन्तु सशक्त रूपमें इस विवाद में अपना पक्ष रखता हूँ और कहता हूँ कि बात बिलकुल उलटी ही है। वास्तवमें हुआ यह है कि कौंसिल में ऐसे लोक-स्वराज्यकी नींव डाल दी गई है जिसका विकास लोगोंकी स्वतन्त्र इच्छा और पसन्दके आधारपर किया जायेगा। कौंसिलकी माँग स्वीकार की जायेगी या नहीं, यह बात गौण है। इसी तरह यह प्रश्न भी उतना ही असंगत है कि कौंसिलों द्वारा स्वराज्यकी ओर