पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/६४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६०८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वास्तविक प्रगति सम्भव है या नहीं। किन्तु मेरी समझ में यह बात बिलकुल नहीं आती कि कौंसिल अथवा विधान सभाओंमें की गई किसी कार्रवाईसे "स्वराज्यकी ओर प्रगति वस्तुतः कसे रुकी है।" मेरा खयाल तो यह है कि स्वराज्यवादियोंने सन्देहग्रस्त संसारको कमसे कम यह दिखा दिया है कि उनके दलके लोग कृतसंकल्प हैं और वे स्वराज्यसे कम कोई चीज स्वीकार नहीं करेंगे। हमारे प्रदर्शनका कोई निश्चित लाभ हुआ है, यह बात शायद शंकास्पद हो, किन्तु उससे हानि हुई है, यह कहना तो उचित नहीं है।

अब मैं महात्माजीके बताये गये कारणोंका साफ-साफ उत्तर दूँगा।

(क) कौंसिल-प्रवेश—"वर्तमान शासन-पद्धति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भाग लेनेके समान है। हम अपने दैनिक जीवनमें ऐसे बहुतसे कार्य करते हैं जिनके द्वारा हम वर्तमान शासन पद्धति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भाग लेते हैं। किन्तु यह आपत्ति इस मान्यतापर आधारित मालूम होती है कि विधान सभाएँ इस प्रणालीको कायम रखने के लिए बनाये गये तन्त्रकी मुख्य अंग मात्र हैं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वर्तमान प्रणालीका औचित्य बतानेके लिए बनाये गये तन्त्र में ये विधान सभाएँ केवल दिखावटी अंग हैं। तथ्य यह है कि सरकार विधान सभाओंसे पूर्णतः स्वतन्त्र है। ये सभाएँ इस प्रणालीको वास्तवमें कायम नहीं रखतीं; बल्कि सरकार संसारको जो धोखा दे रही है, वे उसे छिपाने के लिए बनाई गई हैं। स्वराज्यवादी कौंसिलोंमें इस धोखेकी कलई खोलनेके लिए गये हैं। वे इस धोखे में हिस्सा नहीं लेते, बल्कि उसमें हिस्सा लेने से इनकार करते हैं। कांग्रेसजन नगरपालिकाओं में भाग लेते हैं; किन्तु गांधीजी इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते। में महात्माजीके इस रुखसे उनके इस कथनका मेल बैठाने में असमर्थ हूँ। इस देशमें जो विभिन्न नगरपालिका अधिनियम लागू हैं उनको सरसरी निगाहसे पढ़ने से यह बात मालूम होगी कि ये संस्थाएँ प्रशासनका अत्यन्त आवश्यक भाग हैं और उनको समस्त महत्त्वपूर्ण मामलोंमें सरकारसे पूरा सहयोग करके ही चलाया जा सकता है। उनके कारण सरकारी स्कूलोंका बहिष्कार व्यर्थ हो जाता है, क्योंकि लगभग सभी नगरपालिकाएँ इन स्कूलोंको चलाने के लिए सरकारी राजस्वमें से सहायता माँगती हैं और अच्छी-बड़ी राशियाँ सहायता के रूपमें प्राप्त करती हैं। उनके कारण ही यह विसंगति उत्पन्न होती है कि कांग्रेसजन भारतीय विधान कानून के अन्तर्गत नियुक्त किये गये मन्त्रियोंकी नीतिको कार्यान्वित करने और इस प्रकार मन्त्रियोंपर सरकारका नियन्त्रण लागू करने के लिए विवश होते हैं। ऐसे अन्य भी बहुतसे काम हैं जिनसे केवल सहयोगकी ही गन्ध नहीं आती, बल्कि जो वर्तमान शासन-पद्धति में प्रत्यक्ष भाग लेने के समान हैं।

(ख) "अवरोध"—यह शब्द ऐसा है जिसका बहुत अधिक दुरुपयोग और अनुचित प्रयोग हुआ है, किन्तु मैं मानता हूँ कि हमारे स्वराज्यवादियोंको पर्याप्त अभ्यास न होने के कारण, इससे हिंसाकी गन्ध नहीं आती और वे यह भी नहीं समझ पाते कि दण्डविधि संशोधन अधिनियम के भंगमें और कांग्रेस द्वारा स्वीकृत विभिन्न तरहके धरनों और हड़तालों में हिंसाकी जो गन्ध आती है, स्वराज्यवादियोंके कार्यक्रममें हिंसा की उससे तेज गन्ध आये, यह कैसे सम्भव है। मैं स्वयं सविनय अवज्ञाको अवरोधका