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परिशिष्ट

सबसे बड़ा रूप मानता हूँ। किन्तु हमें शब्दोंको अनुचित महत्त्व नहीं देना चाहिए और स्वराज्यवादियोंने वास्तवमें जो कार्य किया है उसीपर विचार करना चाहिए। उन्होंने मध्यप्रान्तमें कार्यक्रमपर पूरा अमल किया है। उन्होंने वहाँ क्या किया है अब हम उसपर विचार करें। उन्होंने सबसे पहले मन्त्रियोंके विरुद्ध अविश्वासका प्रस्ताव स्वीकार किया। यह वस्तुतः उस प्रणाली में अविश्वास था जिसके अन्तर्गत मन्त्री नियुक्त किये गये हैं और यह बात प्रस्तावके समर्थनमें दिये गये भाषणोंमें बिलकुल स्पष्ट कर दी गई थी। अविश्वास प्रस्तावके बाद सरकारको मन्त्रियोंको बरखास्त करना था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। उन्होंने उसके बाद मन्त्रियोंकी तनख्वाहें नामंजूर कर दीं; किन्तु वे फिर भी अपने पदोंपर बने रहे और अपनी विभागीय कार्रवाइयाँ करते रहे। ये सब कार्रवाइयाँ नामंजूर कर दी गई, क्योंकि कौंसिलने अविश्वास प्रस्ताव और उनको तनख्वाहें नामंजूर करने के बाद मन्त्रियोंको मान्य करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद बजट रखा गया। इसपर कौंसिलका कोई प्रभावकारी नियन्त्रण नहीं था, अतः वह साफ-साफ यह कारण देकर नामंजूर कर दिया गया कि जिस राजस्वको इकठ्ठा करने में कौंसिलकी कोई राय नहीं ली जाती और जिसके खर्च किये जानेपर उसका कोई नियन्त्रण नहीं, कौंसिल उस राजस्वके खर्च में भाग लेना नहीं चाहती। ऐसे ही कारणोंसे कुछ दूसरे विधेयक भी नामंजूर किये गये। वहाँ जो कुछ हुआ है वह बस इतना ही है। मैं स्वराज्यवादियोंके इन कार्योंकी जाँच-पड़ताल उनके गुणावगुणके आधारपर करनेका आह्वान करता हूँ और यह पूछता हूँ कि क्या उच्चतम नैतिक और सदाचार सम्बन्धी आधारपर इनमें से किसी कार्यपर कोई आपत्ति की जा सकती है। ये कार्य ही विभिन्न दृष्टिकोणोंसे अवरोध के कार्य, ध्वंसके कार्य और तोड़-फोड़के कार्य कहे जा सकते हैं और कहे गये हैं। किन्तु केवल भाषापर जाने से कुछ नहीं बनता। आपको तो तत्त्व या सार देखना चाहिए। मेरा दावा है कि मध्यप्रान्तमें जो कुछ किया गया वह तत्त्वतः लोगोंकी इच्छा के प्रति उदासीन सरकारसे असहयोग था। यही बात कौंसिल और बंगाल विधान सभामें किये गये स्वराज्यवादियों के कार्योंपर लागू होती है।

(ग) "रचनात्मक कार्यक्रम"। इस आपत्तिका क्या अर्थ है यह में नहीं समझ सका हूँ, किन्तु बादमें मुझे महात्माजीने बताया कि इसका अर्थ केवल इतना ही है कि कौंसिल प्रवेशके प्रश्नमें जो समय और शक्ति लगी वह रचनात्मक कार्यक्रम में नहीं लग सकी। जहाँतक इस बातका सम्बन्ध है, यह केवल अपरिवर्तनवादियोंपर लागू होती है, क्योंकि स्वराज्यवादी तो कांग्रेसकी कार्यकारिणी समितियोंमें से लगभग निकाल ही दिये गये हैं और उनका रचनात्मक कार्यक्रमके विभिन्न भागोंसे सम्बन्धित संस्थाओंपर कोई नियन्त्रण नहीं रहा है। यदि स्वराज्यवादी कौंसिलोंमें न जाते तो उनके सामने ये दो मार्ग रह जाते, या तो वे कार्यसे निवृत्त हो जाते या रचनात्मक कार्य करनेके लिए अपनी स्वतन्त्र संस्थाएँ बनाते; किन्तु इन दोनों ही कार्योंसे रचनात्मक कार्यमें कोई सहायता न मिलती।

(घ) "प्रवेश असामयिक है"। मेरा खयाल है कि यह आपत्ति मेरी समझ में पूरी तरह नहीं आई है। यदि इसका अर्थ यह हो कि हमें स्वराज्य मिलने तक रुके

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