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टिप्पणियाँ

है वैसा, अलगावका रुख अपनायें। अंग्रेज कभी-न-कभी समझदारी और बुद्धिमानीका दृष्टिकोण अपनायेंगे, इस बारेमें मैं निराश नहीं हूँ। आखिर वे व्यावहारिक लोग हैं। वे 'फिसल पड़ेकी हरगंगा' को भली-भाँति चरितार्थ करना जानते हैं। देखा तो यही गया है कि जिसे वे तर्कसे नहीं मानते, उसे हालातसे मजबूर होकर मान जाते हैं। परन्तु पत्रलेखकसे मेरा कहना है कि हममें कुछ आत्मविश्वास भी होना चाहिए। हमें जो आज कूड़ा-करकट मान लिया जाता है, उसमें क्या हमारा अपना कुछ भी दोष नहीं है? यदि हम अबतक इतने कमजोर रहे कि अपने अधिकारोंका आग्रह नहीं कर सके, हममें इतनी फूट रही कि हम अपनी इच्छाओंकी ओर किसीका ध्यान आकर्षित नहीं कर सके, इतने स्वार्थी रहे कि देशके लिए त्याग नहीं कर सके और इतने अज्ञानमें रहे कि देशके सच्चे हितोंको समझ नहीं सके, तो फिर यदि अंग्रेज व्यापारी हमारी कमजोरियोंका फायदा उठाकर हमारे मालिक बन बैठें और यह सोचने लगें कि उन्हें न केवल भारतमें रहनेका, बल्कि हमसे "लकड़ी काटनेवाले और पानी भरनेवाले" मजदूरोंकी तरह काम लेनेका भी परम्परागत अधिकार है, तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है? पत्रलेखकने जो रुख अपनाया है, उससे केवल क्रोध ही नहीं, हममें आत्मविश्वासका अभाव भी प्रकट होता है। इसलिए मैं यह सोचता हूँ कि कांग्रेस द्वारा ग्रहण की हुई नीति ही शोभनीय और व्यावहारिक नीति है। यदि अंग्रेज और अन्य लोग मित्र और राष्ट्रके सेवकोंकी तरह रहें, तो हमारे देशमें उनके लिए काफी जगह है। लेकिन यदि कोई, चाहे वह अंग्रेज हो या कोई और, भारतमें शासक या मालिककी तरह रहना चाहता है तो यहाँ उसके लिए जगह नहीं है। हमें जातीय श्रेष्ठताके पिशाचसे लड़ना है, चाहे इसके लिए हमें प्राणोंकी बलि क्यों न देनी पड़े। साथ ही हममें यह समझने लायक नम्रता भी होनी चाहिए कि हम अपने ही पापका फल भोग रहे हैं। क्या हमने भारतके अछूतोंके साथ वही व्यवहार नहीं किया है जो स्मिथ-जैसे अंग्रेज हमारे साथ करते हैं।

जेलसे रिहा

पण्डित जवाहरलाल, मौलवी गुलामतुल्ला, शेख शौकत अली, श्रीयुत मोहनलाल सक्सेना, पण्डित बालमुकुन्द वाजपेयी, डा॰ शिवराज नारायण और डा॰ एल॰ सहाय मीयाद पूरी होनेसे पहले ही लखनऊ जेलसे रिहा कर दिये गये हैं।[१] जाहिर है कि संयुक्त प्रान्तकी सरकारने दुबारा जाँचके लिए जिन न्यायाधीश महोदयको नियुक्त किया था, वे इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि सजाएँ गलत थीं। इन सजाओंमें से कितनी बिलकुल गलत हैं, यह ईश्वर ही जानता है। लेकिन एक चीज आज साफ जाहिर है कि कैदी अपनी रिहाईपर बजाय खुश होनेके दरअसल दुःखी हुए हैं। पण्डित जवाहरलाल और उनके साथियोंके साथ मेरी पूरी सहानुभूति है। अपंजीकृत पत्र 'इंडिपेंडेंट' में[२] उनका निम्नलिखित सन्देश छपा है :

  1. जवाहरलाल नेहरू अन्य नेताओंके साथ २२ नवम्बर, १९२१ को गिरफ्तार किये गये थे।
  2. यह फरवरी १९१९ में शुरू किया गया था; देखिए खण्ड १५, पृष्ठ ८३। असहयोग आन्दोलनके दौरान सरकारने इसकी जमानत जब्त कर ली थी।