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स्वयं महात्माजीने 'यंग इंडिया' में यह इच्छा प्रकट की है कि मैं एक पूर्ण वक्तव्य देकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूँ। गत २० जनवरीके 'हिन्दू' में मैं अपनी स्थिति पहले ही स्पष्ट कर चुका हूँ। मेरा स्पष्टीकरण इस प्रकार है :
विज्ञप्तिके शब्दोंसे यह भाव निकलता है कि सरकारको मैंने कोई वचन दिया है इसलिए उसने मुझे छोड़ा है। लेकिन त्रिचनापल्ली सेंट्रल जेलके सुपरिन्टेन्डेन्टको जो आदेश दिया गया वह इस प्रकार था :
"सपरिषद् गवर्नर, दण्ड प्रक्रिया संहिताकी (अमुक) धारा के अधीन, बन्दी सुब्रह्मण्य शिवकी बाकी सजा बिना शर्त खुशीके साथ माफ करते हैं।"
आदेशके 'बिना शर्त' शब्दोंसे यह साफ हो जाता है कि किसी वचन या शर्तका कोई जिक्र नहीं किया गया, और मेरी रिहाईका मुख्य कारण प्रधान सर्जन और जिला मेडिकल ऑफिसरको सिफारिशें ही रही होंगी। मुझपर कोई शर्त नहीं लगाई गई है; और में पहलेकी तरह अपनी इच्छानुसार किसी भी ढंगले काम करनेके लिए स्वतंत्र हूँ, अपने देशवासियोंको में यह बता देना चाहता हूँ।
अब दो शब्द अपने वचन के बारेमें। सजा हो जानेके बाद फौरन ही में जेलमें इतना सख्त बीमार पड़ गया कि तेज बुखारके अलावा मुझे हर रोज बेशुमार दस्त भी आने लगे। यहाँतक कि कभी-कभी में प्रलाप करने लगता। मेरे जीवनकी कोई आशा नहीं बची थी। ऐसे ही समय में मैंने सरकारको यह वचन लिखकर दे दिया कि यदि मुझे रिहा कर दिया जाये तो में भविष्यमें राजनीति से अलग रहूँगा। कुछ लोग इसे मेरी कमजोरी समझ सकते हैं। परन्तु यदि उन परिस्थितियों और उस समयको ध्यान में रखा जाये जिसमें कि मैंने यह लिखा था, तो मेरा खयाल है कि मुझे निश्चय ही क्षमाका अधिकारी समझा जायेगा। होमर तकने यह माना है कि इन्सानसे गलती होती ही है; और में भगवान् नहीं हूँ। अपने देशवासियोंसे, जो मेरे जीवनको १९०५ से देख रहे हैं, यह आशा रखनेका मुझे पूरा-पूरा अधिकार है कि वे मेरी इस छोटी-सी पिछली कमजोरीको बहुत महत्त्व न देंगे।

यद्यपि सभी यही चाहेंगे कि लोग यन्त्रणाएँ झेलते हुए भी माफी न माँगें, परन्तु जो व्यक्ति शारीरिक पीड़ासे कमजोर पड़ जाते हैं उनकी आलोचना करना बाहरवालों का काम नहीं है। इसलिए श्री शिवकी जनतासे यह अपील ठीक ही है कि माफीनामा देनेके कारण वह उनके बारेमें कोई कठोर राय कायम न करे। लेकिन बात यह है कि एक बार माफीनामा दे देने और कोई वायदा कर लेनेके बाद उसे ईमानदारीसे पूरा किया जाना चाहिए था। माफीके आदेशमें जो "बिना शर्त" शब्द हैं, श्री सुब्रह्मण्य शिवको उनसे लाभ उठानेका कोई अधिकार नहीं है। वे इस बातके परिचायक हैं कि एक असहयोगीकी ईमानदारीपर भरोसा किया जा सकता है। निश्चय ही सरकार द्वारा यह विश्वास सर्वथा उचित था कि श्री शिव अपने लिखित वचनका पालन