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परन्तु उनकी आखिरी राय यह है :

कुछ गाँवोंमें अस्पृश्यता मिट गई है और कुछमें उसके शीघ्र ही मिट जानेको सम्भावना है। हमारे विचारमें प्रगति सभी जगह समान और पर्याप्त नहीं है।

अन्तिम रूपसे वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं :

बेशक यह प्रगति सराहनीय है, लेकिन यह मानना कठिन है कि यदि और भी उग्र और पाशविक तरीके अपनाये गये तो जनता कहाँतक पूर्णतया शान्त रह सकेगी। अनुशासन सीखने के लिए उन्हें बहुत कम समय मिला है। वे अभी लड़ाईकी शुरूकी स्थितिमें हैं। अधिक उपयुक्त हम यह समझते हैं कि आन्दोलन तबतक के लिए स्थगित रखा जाये जबतक कि लोग दमन और अत्याचारके सारे अस्त्रोंको व्यर्थ करने योग्य मजबूत न बन जायें।

इस महत्त्वपूर्ण रिपोर्टसे ये प्रासंगिक उद्धरण मैंने यह दिखानेके लिए दिये है कि (१) उक्त तीनों आयुक्तोंने अपना कार्य बिलकुल निष्पक्ष दृष्टिकोणसे किया है। (२) चुने गये इलाकेने कांग्रेसकी शर्तोंको पूरा करनेकी दिशामें आश्चर्यजनक प्रगति की है; (३) सविनय अवज्ञाके प्रश्नपर थोड़े-बहुत विश्वासके साथ विचार करनेसे पहले अभी बहुत ज्यादा काम होना आवश्यक है। मैं जानता हूँ कि भारतके बहुत-से भागोंमें कांग्रेस द्वारा निर्धारित शर्तोंको पूरा करनेके लिए असाधारण प्रयत्न हो रहे हैं, ताकि लोग सविनय अवज्ञाके अपने अधिकारका उपयोग कर सकें। यह निश्चय ही अपने-आपमें अभिनन्दनीय है। परन्तु रचनात्मक कार्य किसी बाहरी जोशपर आधारित नहीं होना चाहिए। उसे तो सविनय अवज्ञाके जोशसे निरपेक्ष रहकर चलते रहना चाहिए। अस्पृश्यता निवारण, खद्दर तैयार करना, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अहिंसाका पालन, ये कोई अस्थायी कार्यक्रम नहीं है। ये वे चार स्तम्भ हैं जो स्वराज्यके ढाँचेके सदा आधार रहेंगे। इनमें से किसी एकको भी हटानेसे वह बिना गिरे न रहेगा। इसलिए इन चार बातोंमें जितनी तरक्की होगी, हम स्वराज्य और सविनय अवज्ञाकी योग्यताके उतने ही निकट पहुँचेंगे। यदि अवज्ञा सचमुच सविनय हो तो उसमें भी कोई जोशकी बात नहीं उठती। जब डेनियलने मीडों और फैरीसियोंके कानूनकी अवज्ञापर अपने दरवाजे खोल दिये थे, जब जॉन बनियनने चर्च-समर्थित रूढ़ियोंका त्याग किया, जब लैटिमरने अपना हाथ आगमें दे दिया था, जब प्रह्लादने लोहेके दहकते खम्भेको अंकमें भर लिया था, तो पुराने जमाने के इन सत्याग्रहियोंमें से किसीने भी कोई जोशमें आकर ऐसा नहीं किया था। इसके विपरीत यदि उनके विषयमें ऐसा कहना सम्भव हो तो कहा जा सकता है—वे उस समय सामान्य अवसरोंकी अपेक्षा कहीं अधिक शान्त और आश्वस्त थे। जोशका न होना सविनय अवज्ञाकी एक अचूक कसौटी है। इसलिए मैं चुने गये इस इलाकेके समझदार लोगोंसे यह आशा करूँगा कि अब सामूहिक सविनय अवज्ञा रुक गई है, यह सोचकर वे शिथिलता नहीं दिखायेंगे, बल्कि रचनात्मक कार्यक्रमको और भी उत्साह और निष्ठासे जारी रखेंगे