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ताण्डव
न करनेवाले पदाधिकारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियोंके मामलेमें (जैसा कि ऊपर कहा गया है) क्या कार्रवाई की जाये।

आपका,
मन्चरशा रुस्तमजी आवारी

हंसापुरी
नागपुर, २९–२–१९२२

इस विषय में दिल्लीका प्रस्ताव बिलकुल स्पष्ट है और सभी पदाधिकारियोंसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे हाथके कते और हाथके बुने खद्दरके सिवा कोई दूसरा कपड़ा नहीं पहनेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९–३–१९२२
 

१७. ताण्डव

नमक कर दूना किये जाने तथा जीवनकी दूसरी आवश्यक चीजोंपर भी कर बढ़ाने के प्रस्तावकी चारों ओरसे एक स्वरमें निन्दा की जा रही है। यह किसलिए? इस बातपर भी आश्चर्य प्रकट किया जा रहा है कि इधर जो बासठ करोड़का कमर तोड़ फौजी खर्च बढ़ाया गया है, उसके लिए कोई सफाई तक नहीं दी गई है। जो बात की ही जानी है उसके लिए सफाई देना मुमकिन नहीं है। राष्ट्रमें ज्यों-ज्यों चेतना बढ़ती जायेगी, त्यों-त्यों फौजोंका खर्च भी बढ़े बिना नहीं रह सकता। फौजकी जरूरत भारतकी रक्षाके लिए नहीं है। असलमें उसकी आवश्यकता तो अंग्रेज शोषकोंको भारत के सिरपर जबरदस्ती बिठा रखनेके लिए है। नग्न सत्य तो यही है। श्री मॉन्टेग्यूने बात बिना किसी लाग-लपेटके लेकिन ईमानदारीके साथ कही है। अपने कार्यकालकी समाप्तिपर 'बंगाल चेम्बर ऑफ कॉमर्स' के सभापतिने भी यही कहा और बम्बईके गवर्नरने भी। वे हमारे साथ व्यापार तो करना चाहते हैं; पर हमारी शर्तोंपर नहीं, अपनी ही शर्तोंपर।

लक्ष्य तो एक ही है। उसे डंके की चोट हासिल किया जाये या धोखेकी टट्टी खड़ी करके—इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। कौंसिलें धोखेकी टट्टियाँ हैं। इनका खर्च हमें ओढ़ना ही पड़ेगा। यह शासन सुधार योजना हमारी छातीपर भूतकी तरह सवार है। इसने खून चूसनेवाले नमक करकी तरहके कितने ही दोषोंपर पर्दा डाल रखा है।

अंग्रेज हमसे कहते हैं—"तुम चाहो अथवा न चाहो, हम तो हिन्दुस्तानको छोड़नेवाले नहीं।" और हम भी यह माने बैठे हैं कि यह सब हमारे भलेके लिए ही है। हमारा यह खयाल बन गया है कि अंग्रेजोंके शस्त्र-संरक्षणके बिना हम आपस में मरे-कटे बिना रह ही नहीं सकते। इस तरह अपने भाइयोंके हाथों प्राण गँवानेके भवसे, हम गुलामोंकी तरह जिन्दा रहना गनीमत मानते हैं।