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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इन कौंसिलों और सभाओंकी ओटमें छिपी तानाशाहीकी बनिस्बत तो फौजी तानाशाहीका शासन हजार गुना बेहतर है। इनसे शारीरिक कष्ट और खर्चका बोझ दोनों बढ़ते हैं। यदि हमें जान इतनी ही प्यारी है तो यह डींग हाँकनेकी अपेक्षा कि हम धीरे-धीरे आजाद हो रहे हैं यह अधिक अच्छा होगा कि हम असलियतका सामना करें और उन निर्लज्ज तानाशाहोंके सामने घुटने टेक दें। धीरे-धीरे आजादी? ऐसी तो कोई चीज होती ही नहीं; स्वतन्त्रता तो प्रसव-जैसी चीज है। जबतक हम पूरी तरह आजाद नहीं हो जाते तबतक हम गुलाम ही हैं। प्रसव जब होता है तब चुटकी बजाते ही होता है।

कांग्रेसका डर आती हुई आजादीके डरके सिवा और है ही क्या? कांग्रेस उनके लिए एक विकट वस्तु बन चुकी है। और इसलिए वैध अथवा अवैध किसी भी प्रकारसे उसका अस्तित्व तो मिटाना ही है। यदि लोगोंके मनमें काफी हदतक आतंक बैठा दिया जाये, तो यह लूट अभी सौ बरस और जारी रखी जा सकेगी। यह दूसरी बात है कि इस बढ़ते हुए बोझके मारे भारत तबतक जीवित ही न रह सके, या लोग ही इस बीच कीट-पतंगोंकी तरह समाप्त कर दिये जायें। नारियल खानेवाला आदमी गिरीके साथ दया-माया नहीं दिखलाता। सारी गिरी निकाल चुकने पर वह नरेलीको फेंक देता है। हम इस कामको हृदयहीन कृत्य नहीं मानते। व्यापारी भी इस बातका खयाल नहीं करता कि मैं इस गरीब खरीदारसे क्या ऐंठ रहा हूँ। हृदयहीनता कैसी; ऐसे मामलोंमें हृदय होता ही नहीं। व्यापारी जितना ऐंठ पाता है, ऐंठ लेता है और फिर अपने काममें लग जाता है। यह तो व्यवसाय है, जब जैसा पट जाये।

कौंसिलोंके सभासदोंको उनका किराया और भत्ता चाहिए, मन्त्रियोंको उनका वेतन चाहिए, वकीलोंको मेहनताना, मुकदमेबाजोंको कुर्कीके आदेश। माता-पिता बच्चोंके लिए हैसियत बनानेवाली शिक्षा और लखपति लोग करोड़पति बनने में सहायक होनेवाली सुविधाएँ, और बाकीके लोग पौरुषहीन शान्ति चाहते हैं। और ये सबके-सब सरकारके इर्दगिर्द कठपुतली बन मस्त होकर नाच रहे हैं। सभी अपनी सुध-बुध भूले हुए हैं और किसीको उससे मुक्त होनेकी चिन्ता नहीं है। ज्यों-ज्यों उसकी लय बढ़ती है, त्यों-त्यों हर्षोंन्माद बढ़ता जाता है। मगर यह रास नहीं, ताण्डव नृत्य है। यहाँ जो स्फूर्ति दिखाई पड़ रही है वह मरणासन्न रोगीके हृदयकी तीन धड़कन है।

जबतक यह ताण्डव जारी रहेगा तबतक यह खर्च बढ़े बिना रह ही नहीं सकता। यदि यह वृद्धि असहयोगियोंके मजबूत कंधोंपर भी लाद दी जाये तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। उनके जानने योग्य तो एक ही बात है। यदि वे अपने सिद्धान्तपर दृढ़ रहना चाहते हैं, तो उन्हें इस बढ़े हुए बोझके प्रति उदासीन बने रहना चाहिए। वे इसको केवल एक ही तरीके—अहिंसासे रोक सकते हैं, और जब कभी यह रुकेगा उसका साधन यही होगा। क्योंकि असहयोग अधिकांशतः तो उस संगठित हिंसासे अलग हो जाना है जिसपर सरकार टिकी हुई है। यदि हम सरकारकी हिंसाका मुकाबला करने के लिए हिंसात्मक संगठन करना चाहें, तो हमें इससे भी अधिक खर्च उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम उन तमाम नर्तकोंको यह भले न समझा पायें