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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे जान-बूझकर सत्यकी तोड़-मरोड़ करनेवाले आदमी नहीं हैं। मैं उन्हें एक अत्यन्त योग्य सार्वजनिक कार्यकर्त्ता मानता हूँ। वे ऐसे नहीं हैं कि आसानीसे किसीके कहने में आ जायें। इसलिए जब खुद वे किसी बातपर अपनी राय जाहिर करते हैं तो मैं उसपर तुरन्त ध्यान देता हूँ। उनके सरकार पक्षीय रुखका उनके निष्कर्षोंपर कुछन-कुछ असर तो होगा ही, इतना जानते हुए भी रिपोर्ट ऐसी नहीं समझी जा सकती कि उसपर विचार ही न किया जाये। और न उन चिट्ठी-पत्रियोंकी ही उपेक्षा की जा सकती है जो जमींदारों तथा दूसरे लोगोंकी तरफसे मेरे पास भेजी गई हैं और जिनमें यह कहा गया है कि संयुक्त प्रान्त के लोगों के विचार हिंसापूर्ण हो रहे हैं तथा वे अज्ञानवश कानूनकी अवहेलना कर रहे हैं। इस समय मेरे सामने बरेलीकी रिपोर्ट है और उसपर वहाँकी कांग्रेसके मन्त्री के हस्ताक्षर भी हैं। एक ओर जहाँ हाकिमोंने क्रोधावेशमें अपनेको भूलकर पागलोंका-सा बरताव किया है वहाँ हम भी, यदि रिपोर्टकी बातें सच मानी जायें, तो दोषसे मुक्त नहीं हैं। स्वयंसेवकोंका वह जुलूस सविनयप्रदर्शन नहीं था। खुद हममें ही तीव्र मतभेद था और फिर भी जूलूस निकालनेकी जिद की गई। यद्यपि जो लोग वहाँ एकत्र हुए थे उन्होंने कोई हिंसा-कार्य नहीं किया, तथापि उस जुलूसकी भावना निस्सन्देह हिंसापूर्ण थी। वह अपनी सामर्थ्यका एक पुंसत्वहीन प्रदर्शन था, जिसकी हमारे उद्देश्यकी सिद्धिके लिए कोई आवश्यकता नहीं थी और जिसे सविनय अवज्ञाके समारम्भकी भूमिका भी नहीं कहा जा सकता था। हाँ, इसमें काफी सच्चाई है कि अधिकारी लोग जुलूसके साथ इससे अच्छी तरह पेश आ सकते थे; उन्हें स्वराज्य के झण्डेसे छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए थी, उन्हें टाउन हॉल के इस्तेमालपर आपत्ति नहीं करनी चाहिए थी; क्योंकि टाउन हॉलमें कांग्रेस के दफ्तर थे और वह कस्बेकी जनताकी अपनी सम्पत्ति थी और टाउन कौंसिलकी इजाजतसे महीनोंसे वे दफ्तर उसीमें थे। लेकिन हमने तो अधिकारियोंसे यह आशा करना छोड़ दिया है कि वे सामान्य बुद्धि और विवेकका उपयोग करेंगे। बल्कि इसके प्रतिकूल हम तो उनसे विवेकहीनता और हिंसाकी ही आशा रखते हैं और इसीलिए हम उनकी मुखालफत के लिए खड़े हुए हैं। सो हम तो यह जानते ही थे कि वे इससे अच्छा सलूक कर ही नहीं सकते; अतएव हमें इन जुलूसोंके झगड़ेसे दूर ही रहना था। यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि संयुक्त प्रान्तकी सरकार तिलका ताड़ बना रही है और अपने कृत्यों द्वारा तथा चौरीचौराके हत्या काण्ड द्वारा उत्पन्न हुई उत्तेजनाको कम करके गिन रही है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि इस बातका हम दावा नहीं कर सकते कि हमने उन्हें किसी तरहका मौका ही नहीं दिया। अतएव सविनय अवज्ञाका स्थगित किया जाना केवल प्रायश्चित्त के रूपमें है। पर यदि वातावरण साफ हो जाये, लोग 'सविनय' शब्दका पूरा-पूरा महत्त्व समझ जायें, और उनकी भावना तथा कार्य दोनों वास्तवमें अहिंसात्मक हो जायें, और यदि मैं देखूँ कि तब भी सरकार लोकमत के आगे झुकना नहीं चाहती तो अवश्य स्वयं मैं ही सबसे पहले व्यक्तिगत या सामूहिक सविनय अवज्ञाकी, जैसी कि उस समय आवश्यकता होगी, हिमायत किये बिना न रहूँगा। इस कर्त्तव्यसे छुट्टी तो तभी मिल सकती है जब लोग अपने जन्मसिद्ध अधिकारको छोड़ देनेके लिए तैयार हों।