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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


समझमें आ जाता है कि दुर्व्यसन कितना बड़ा है और वह अपनेको सुधार लेता है। बम्बईमें मेरे जिन अनुयायियों और सहयोगियोंने हिंसाका मार्ग अपनाया उन्हें मालूम था कि हिंसा असहयोगके सिद्धान्तके विपरीत पड़ती है। वे उस बुनियादी सिद्धान्तसे भटक-भर गये थे। मेरे उपवास करनेपर उन्होंने अपनी गलती समझ ली और उसे सुधार लिया।

किन्तु यदि सम्भावना ऐसी हो कि मित्र अपनी गलती महसूस किये बिना ही, अन्य किन्हीं कारणोंसे आपकी बात मान लेगा तो आप उसके खिलाफ भी उपवास नहीं कर सकते। उदाहरणके लिए, मैंने जब एक अछूतको अपने परिवारका सदस्य बनानेका प्रस्ताव रखा तो मेरी पत्नीने इसपर आपत्ति की। यदि उस परिस्थितिमें मैं उपवास करता तो शायद उसे झुक जाना पड़ता; लेकिन उसका कारण होता उसका यह भय कि उपवाससे कहीं मेरी मृत्यु न हो जाये और वह अपने पतिको न खो दे। वह झुकती तो उपरोक्त भयसे न कि इस खयालसे कि उसने एक इन्सानको अछूत मानकर गलत काम किया है। यदि इस मामलेमें मैं सफल होता तो उसका मतलब यह होता कि मैंने उसके विचारोंको अपने पक्षमें नहीं किया बल्कि उसपर जोर-जुल्म किया और उसकी भावनाओंको ठेस पहुँचाकर ही उससे अपनी बात मनवा ली। इसी प्रकार त्रावणकोरके महाराजा भी एक रहमदिल आदमी होने के कारण अविचलित भावसे शायद किसी सत्याग्रहीको मरते हुए न देख सकें। हो सकता है कि आपका उपवास उनको झुकने पर विवश कर दे। परन्तु इसका कारण यह नहीं होगा कि उन्होंने अपनी गलती महसूस कर ली है और वे छुआछूतको बुरी चीज मानने लगे हैं। वे आपकी बात इसलिए मानेंगे कि वे किसी ऐसे आदमीको मरते नहीं देख सकते जिसने, उनकी रायमें मूर्खतावश मरनेकी ठान ली है। यह किसीको बाध्य करनेका निकृष्ट ढंग है और सत्याग्रहके बुनियादी सिद्धान्तोंके सर्वथा विरुद्ध है।

प्र०: अगर मान लिया जाय कि महाराजा मित्र न होकर शत्रु और क्रूर शासक है तो सत्याग्रही अपने कष्ट-सहनके बलपर उनको कभी जीत ही नहीं सकते। ऐसी हालतमें क्या यह ठीक नहीं होगा कि एक शक्तिशाली लोकमत तैयार करके और सरकारको अटपटी स्थितिमें डालकर उसे हमारी बात माननेपर विवश किया जाये। इसका अर्थ यह तो होगा कि दबाव डाला गया। उदाहरणार्थ, खेड़ामें जिस शासनतन्त्रने जनताकी बात मानने से इन्कार कर दिया था उसे प्रेमके द्वारा नहीं, दबावके बलपर झुकाया गया था। इस तरहका दबाव कारगर तभी हो सकता है जब संघर्ष जमकर किया जाये। किन्तु अपार साधनों से लैस एक संगठित सरकारके विरुद्ध बाहरी सहायताके बिना कमजोर जनता ऐसा संघर्ष करनेकी आशा नहीं रख सकती। यदि सत्याग्रहमें इस प्रकार के दबावके लिए भी स्थान नहीं है तो फिर वाइकोमके संघर्षको कोई दूसरा नाम देना पड़ेगा; उसे अनाक्रामक प्रतिरोध, सविनय अवज्ञा या अहिंसापूर्ण आग्रह कहिए। वैसी दशा में फिर बाहरसे मदद लेने में क्या आपत्ति हो सकती है?

१. देखिए आत्म कथा, भाग ४, अध्याय १०।