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५५. सरोजिनीके भाषणपर टिप्पणी[१]

डर्बनके ‘नेटाल मर्युरी’ में प्रकाशित निम्न भाषण ‘यंग इंडिया’ के पाठकोंको अवश्य रोचक लगेगा। मैं उसे यहाँ ‘मक्युरी’ की प्रशंसात्मक टिप्पणीके साथ उद्धृत करता हूँ।[२]

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-५-१९२४

५६. वक्तव्य: एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको

[बम्बई]
२२ मई, १९२४

केन्द्रीय विधान सभा और कौंसिलोंमें कांग्रेसियोंके प्रवेशके कठिन प्रश्नपर मैंने स्वराज्यवादी भाइयोंसे[३] बातचीत की, लेकिन दुःखके साथ कहना पड़ता है कि मैं उनके दृष्टिकोणसे सहमत नहीं हो सका। मैं जनताको विश्वास दिलाता हूँ कि स्वराज्य-वादियोंकी बात समझकर उसे स्वीकार करने के लिए मैं कम इच्छुक नहीं रहा हूँ और इस दिशामें प्रयत्न भी कम नहीं किया है। यदि में उनके दृष्टिकोणको अपना सकता तो मेरा काम बहुत आसान हो जाता। ये नेतागण परमश्रद्धेय और लोकमान्य व्यक्ति हैं। इनमें से कुछने देशके हितके लिए बहुत बड़ा त्याग किया है और देशकी स्वतन्त्रताकी जितनी उत्कट अभिलाषा इन्हें है उससे अधिक किसीको नहीं होगी। ऐसे नेताओंके विरोधका विचार करना भी मेरे लिए कोई सुखकर चीज नहीं हो सकती। मैने बहुत प्रयत्न किया और बहुत चाहा, लेकिन उनकी दलीलें मेरे गले नहीं उतरीं।

उनका और मेरा मतभेद सिर्फ तफसीलकी बातोंपर हो, सो भी नहीं है। हमारा मतभेद प्रामाणिक और बुनियादी है। मैं अपने इस विचारपर अब भी कायम हूँ कि असहयोगकी मेरी जो कल्पना है, उससे कौंसिल-प्रवेशका मेल नहीं बैठता। ऐसा भी

  1. श्रीमती नयघडूने दक्षिण आफ्रिकामें बच्चोंके बीच भाषण देते हुए उन्हें बताया कि वे अपनी जात-पाँतका खयाल किये बिना एक-दूसरेके प्रति सद्भाव रखें। उन्होंने भाषण समाप्त करते हुए कहा था: “तुमको कहना चाहिए: हम ऐसे देशमें नहीं रहेंगे जिसमें एक कौम और दूसरी कौमके बीच फूट है और जहाँ घृणा और स्वार्थका निवास है। जब तुम सारे संसारको प्यार करने लगोगे तब सारा संसार शान्ति और प्रसन्नतासे भर जायेगा।”
  2. इन्हें नहीं दिया जा रहा है।
  3. गांधीजी, मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दासके बीच सप्ताह-भर विचार-विमर्श होता रहा था, किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। स्वराज्यवादियोंके वक्तव्यके लिए देखिए परिशिष्ट २।