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७०. नित्य कताई

एक जैन भाईने मुझे लिखा है कि उनके घरकी स्त्रियोंने चरखा चलाना छोड़ दिया है क्योंकि कुछ मुनियोंने जैन धर्ममें चरखा चलानेको निषिद्ध बताया है। उन्होंने कहा कि चरखा चलानेसे वायुमें विद्यमान सूक्ष्म कीटाणुओंकी हत्या होती है। यदि निम्न गीत[१] तीन सौ वर्ष पुराना हो तो यह गीत स्वतः इन मुनियोंको उनकी आपत्तिका उत्तर दे देता है। इसके अतिरिक्त सामान्य विवेक तो इन मुनियोंकी बातको स्वीकार ही नहीं करेगा। हिंसा तो प्रत्येक कार्यमें होती है। शरीरकी प्रत्येक क्रिया में हिंसा है। खाने, पीने और पहनने में भी हिंसा है। फिर जो उद्योग कपड़ा पहननेके लिए आवश्यक है उसके किये बिना किस तरह काम चल सकता है। यदि दूसरे लोग पानी भरते, खाना पकाते, सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं तथा हम उनके क्योंके फलका उपभोग करते हैं तो हम भी उस पापके भागी बनते हैं। यह स्वाभाविक है। इसलिए यदि इन तीनों कार्योंको हम अपने हाथोंसे करें तो हम उसके विस्तारपर अंकुश रख सकते हैं और पापपुंजको कम कर सकते हैं। अपने हाथसे पानी भरनेवाला मनुष्य उसका उपयोग विचारपूर्वक ही करेगा। लेकिन नलके पानीको उपयोगमें लाते समय कौन संकोच करता है? यही बात समस्त उद्यमोंपर लागू होती है। मैं तो चरखा चलानेकी प्रवृत्तिको हर तरहसे अहिंसा-धर्मकी पोषक प्रवृत्ति मानता हूँ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २५-५-१९२४

७१. विविध विषयोंपर

एक पारसी भाईने कलकत्तासे “भैया” शब्दके प्रयोगके सम्बन्ध में निम्न पत्र लिखा है:[२]

सौभाग्यसे एक करोड़ गुजरातियों में से सभी इस “भैया” शब्दका प्रयोग नहीं करते; मुख्यतः बम्बईमें रहने वाले अथवा बम्बई-निवासी गुजराती ही इसका प्रयोग करते हैं। अत: उत्तर भारतके भाइयोंकी भावनाओंको ठेस न पहुँचानेके विचारसे इतनी छोटी-सी संख्याके ध्यानमें “भैया" शब्दके दुरुपयोगकी बात लाना कठिन नहीं होना चाहिए।

 
  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें एक ऐसी स्त्रीकी कथा आती है जिसने अपने पतिके आजीविका अर्जित करने में असमर्थ होनेपर चरखा चलाकर अपने परिवारको सुखी और समृद्ध बनाया था।
  2. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। नवजीवनके १७-५-१९२४ के अंकमें “भैया" शब्दके क्षोभकारक प्रयोगपर एक लेख था। यह पत्र इसी प्रयोगके स्पष्टीकरणमें लिखा गया था। देखिए खण्ड २३, पृष्ठ ५६६।