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हिन्दू-मुस्लिम तनाव: कारण और उपचार

स्वामी श्रद्धानन्दजीपर भी अविश्वास किया जाता है। मैं जानता हूँ कि उनके भाषण अकसर चिढ़ पैदा करनेवाले होते हैं। परन्तु वे हिन्दू-मुस्लिम एकता भी चाहते हैं। दुर्भाग्यसे उनका खयाल है कि हरएक मुसलमानको आर्यसमाजी बनाया जा सकता है; वैसे ही जैसे शायद अधिकांश मुसलमान हरएक गैर-मुस्लिमका किसी-न-किसी दिन इस्लाम कुबूल करना सम्भव मानते हैं। श्रद्धानन्दजी निडर और बहादुर आदमी हैं। उन्होंने अकेले ही गंगाके किनारे एक वीरान इलाकेको शानदार गुरुकुलके रूपमें बदल दिया। उन्हें अपने तथा अपने काममें सच्चा विश्वास है। पर उनमें उतावलापन है और वे आसानीसे चिढ़ जाते हैं। आर्य समाजकी परम्परा उन्हें विरासतमें मिली है। स्वामी दयानन्द सरस्वतीको मैं बड़े आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। मैं मानता हूँ कि उन्होंने हिन्दू धर्मकी भारी सेवा की है। उनकी बहादुरीके सम्बन्धमें कोई शंका ही नहीं हो सकती। पर उन्होंने अपने हिन्दू धर्मको संकुचित बना दिया। आर्य समाजकी ‘बाइबिल’ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को मैंने पढ़ा है। यरवदा जेलमें जहाँ मैं आराम कर रहा था, दोस्तोंने उसकी तीन प्रतियाँ मुझे भेजी थीं। किसी अन्य इतने बड़े सुधारककी इतनी निराशाजनक कोई कृति मैंने आजतक नहीं पढ़ी। उन्होंने सत्य और सिर्फ सत्यको ही हिमायत करनेका दावा किया है। पर उन्होंने अनजाने ही जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म और खुद हिन्दू धर्मको भी गलत रूपमें पेश किया है। जिन्हें इन महान धर्मोकी थोड़ी भी जानकारी है, वे सहज ही देख सकते हैं कि इस महान् सुधारकसे कैसी-कैसी भूलें हो गई हैं। उन्होंने दुनियाके एक सबसे ज्यादा सहिष्णु और उदार धर्मको संकुचित बना डालनेकी कोशिश की है और यद्यपि वे खुद मूर्ति-पूजाके विरोधी थे, किन्तु उनके प्रयत्नोंका फल बहुत ही सूक्ष्म ढंगकी मूर्ति-पूजाकी प्रतिष्ठाके रूपमें ही प्रकट हुआ है। कारण, उन्होंने ‘वेद’के एक- एक अक्षरको पूज्य बना दिया और यह साबित करनेकी कोशिश की कि ज्ञान-विज्ञान-की सारी बातें ‘वेदों’ में मौजूद हैं। मेरे तुच्छ विचारमें आर्य समाजके फूलने-फलनेका कारण ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के उपदेशोंमें निहित गुण न होकर उस समाजके संस्थापकका उच्च और महान् चरित्र है। जहाँ-कहीं आप आर्य समाजियोंको देखेंगे वहाँ आपको जीवन और स्फूर्ति दृष्टिगोचर होगी। परन्तु संकुचित दृष्टिकोण और विवादप्रिय स्वभाव होने के कारण वे या तो दूसरे धर्मों के लोगोंके साथ या जब वे न मिले तो आपसमें ही झगड़ते रहते है। स्वामी श्रद्धानन्दजीमें भी यह भावना पर्याप्त मात्रामें है। इन त्रुटियोंके होते हुए मैं इन्हें असाध्य नहीं मानता। मुमकिन है कि आर्य समाज तथा स्वामीजीका जो चित्र मैंने यहाँ खींचा है, उससे वे नाराज हों पर यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि मेरी मंशा उनका दिल दुखाना नहीं है। आर्य समाजियोंसे मुझे प्रेम है, क्योंकि मेरे कितने ही साथी-कार्यकर्ता आर्य समाजी हैं। स्वामीजीको तो मैं उन्हीं दिनोंसे चाहने लगा हूँ, जब मैं दक्षिण आफ्रिकामें था। हाँ, अब मैं उन्हें ज्यादा अच्छी तरह पहचानने लगा हूँ; पर इससे उनके प्रति मेरा प्रेम कम नहीं हुआ है। यहाँ भी मेरा प्रेम ही बोला है।

मुझे जिन हिन्दुओंके बारेमें चेतावनी दी गई है, उनमें सबसे अन्तमें आते हैं श्री जयरामदास और डा० चौइथराम। जयरामदासके नामपर तो मैं कसम खा सकता