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विद्यापीठ और आनन्दशंकरभाई

करूँ और तब आनन्दशंकरभाईका उत्तर मँगाऊँ। पर इससे अच्छा तो यह होगा कि पहले उन्हें पत्र लिखूँ उनसे उत्तर मँगा लूँ और तब पत्र और उत्तर साथ-साथ प्रकाशित करूँ। उस हालतमें ही कहा जा सकता है कि मैंने विषय-वस्तु, विद्यार्थी तथा आनन्दशंकरभाईके साथ पूरा न्याय किया। इसके अतिरिक्त आनन्दशंकरभाईके प्रति मेरे मित्रभाव अथवा बन्धुभावने भी मुझे इसी मार्गपर चलनेका संकेत दिया। परिणामत: पाठक भी देख सकेंगे कि मैंने आनन्दशंकरभाईके उत्तर और उक्त पत्रको साथ-साथ प्रकाशित करके ठीक ही किया है। हमारे संवाददाता तो――विशेषरूपसे जब भाषण गुजरातीमें होते हैं――हमारे भाषणोंका पूरा विवरण लिख ही नहीं पाते, यद्यपि ऐसा वे जान-बूझकर नहीं और यदि लिख भी पाते है तो सम्पादक भाषणोंको पूरा छापने के लिए जरूरी जगह नहीं निकाल पाता। इससे बहुत बार उनके विवरण अधूरे रह जाते हैं तथा कई बार तो उनमें भाषणकर्ताके अर्थका अनर्थ ही हो जाता है। ऐसी स्थितिमें किस विवरणको ठीक मानें और किसको ठीक न मानें यह निर्णय करना कठिन हो जाता है। इसी कारण सर फीरोजशाह मेहता अपने सब भाषणोंको लिखते थे। गोखले अपने भाषणोंके विवरणोंको जहाँतक सम्भव होता था स्वयं ही सुधारनेका आग्रह रखते थे। उनके दक्षिण आफ्रिकाके सभी भाषणोंको, जो समाचारपत्रोंमें अक्षरश:प्रकाशित हुए थे, सुधारनेका अधिकार हम सेवकोंमें से किसीको भी प्राप्त न था। उन्होंने अस्वस्थ होने के बावजूद उनको सुधारनेका सारा भार अपने ऊपर ही रख छोड़ा था। मेरे भाषणोंकी दुर्दशा होती है, इसका मुझे कड़वा अनुभव है। इसमें संवाददाताओंका दोष नहीं है। वस्तुस्थिति ही ऐसी है कि इक्के-दुक्के संवाददाता ही शुद्ध विवरण दे करते; पाते हैं।

इन अनुभवोंको ध्यानमें रखकर मैंने आनन्दशंकरभाईको उपर्युक्त पत्र भेजा था और उनसे उत्तर लिख भेजनेकी प्रार्थना की थी। उनका उत्तर निम्न है।[१]

इस उत्तरके बाद मेरे पास कदाचित् ही कहनेको कोई बात रह जाती है। जिस दूसरी संस्थाकी स्थापनाकी अभिलाषा आनन्दशंकरभाईकी है उसीकी स्थापनाकी अभिलाषा मेरी भी है। किन्तु उसके लिए उपयुक्त समय और अनुकूल अवसर कदाचित् अभी नहीं आया है। मेरे विचारसे विद्यार्थी-लेखककी भावना उत्तम प्रकारकी है, किन्तु मेरे शिक्षा-सम्बन्धी विचार तो उसके विचारोंसे बहुत आगे हैं। मेरी अल्पमतिसे तो शिक्षाका प्रयोग धनोपार्जनके लिए कभी नहीं किया जाना चाहिए। धनो-पार्जनका साधन मात्र व्यापार ही होना चाहिए। आजीविकाका साधन मजूरी अर्थात् बुनाई, बढ़ईगिरी, दरजीगिरी या ऐसा ही कोई आवश्यक धन्धा होना चाहिए। वैद्य, वकील और शिक्षक तथा ऐसे ही अन्य लोग मुख्य रूपसे पैसा कमानेके इरादेसे अपना-अपना धन्धा सीखते है और इसी रूपमें उनको चलाते हैं। इसे मैं अपने राष्ट्रकी नैतिक अवनतिका एक बहुत बड़ा कारण मानता हूँ। यह तो आदर्शकी बात हुई। इस तक हम नहीं पहुँच सकते तथापि इसके समीप जितने अधिक जा सकेंगे उतना ही अच्छा है, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। विद्यापीठने यह आदर्श नहीं रखा है,

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है।