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९३. भेंट: ‘स्वातन्त्र्य’ के प्रतिनिधिसे

[साबरमती
३ जून, १९२४]

प्रश्न: क्या आपने यरवदा जेलसे अपनी रिहाईके बाद अपने लेखोंके स्वरमें कोई परिवर्तन महसूस किया है?

उत्तर: जी, हाँ; परिवर्तन आया है।

आपने अहिंसाको बिलकुल धर्म-जैसा मानकर उसपर इतना अधिक आग्रह किया है कि कांग्रेसको अपने स्वयंसेवकोंके सम्बन्धमें आत्मरक्षाका प्रस्ताव पास करना पड़ा।

इस तरहका प्रस्ताव पास करना कांग्रेसके लिए उचित नहीं था। अहिंसाकी मैंने जो परिभाषा दी थी, उसमें यह अर्थ शामिल था।

महात्माजी, क्या आप नहीं मानते कि कमसे-कम कांग्रेस नेताओंको आपकी परिभाषा अस्पष्ट मालूम पड़ी?

जी, हाँ, आप ठीक कहते हैं। हर धर्मके अनुयायीको स्वयं अपने धार्मिक ग्रन्थोंमें अहिंसाके समर्थनमें प्रमाण खोजने चाहिए। मैं अहिंसाका प्रचार इसी दृष्टिसे कर रहा हूँ कि लोगोंको अपने-अपने धर्म-ग्रन्थोंके अनुसार अहिसाका वास्तविक अर्थ खोजनेकी प्रेरणा मिले।

प्रतिनिधिने इसके बाद महात्माजीसे चोर, डाकू या विदेशी आक्रमणकी पृष्ठ-भूमिमें अहिंसाकी मर्यादाएँ बतलानेके लिए कहा। गांधीजीने विख्यात सन्त, एकनाथ महाराजका किस्सा सुनाते हुए कहा कि एक बार उनके घरपर चोर घुस आये। महाराजने उस परिस्थितिमें ईश्वरसे प्रार्थना की कि ऐसा न हो कि चोरोंको उनके घरसे खाली हाथ लौटना पड़े।

महात्माओंके लिए तो यह सम्भव है; पर साधारण जनोंके लिए यह सम्भव नहीं है। आप ऐसी परिस्थितिमें साधारण जनोंको क्या करनेकी सलाह देते हैं।

हमें चोरों इत्यादिसे अपनी रक्षा करनी चाहिए। आपने जो अन्तर बतलाया है वह बिलकुल ठीक है।

क्या आपके विचारसे अंग्रेज भी इसी श्रेणी में नहीं आते?

जी नहीं, आजकलके अंग्रेज इस श्रेणीमें नहीं आते। ईस्ट इंडिया कम्पनीको इस श्रेणी में रखा जा सकता था। पर क्या डाकुओंकी सन्तानको भी आप डाकू ही कहेंगे?

अगर डाकुओंकी सन्तान अपने पूर्वजोंका ही पेशा करे तो क्या उनको डाकू ही नहीं कहा जायेगा?