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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसके दोष साफ दिखाई देने लगे। नतीजा यह है कि अब वे उसे पहनना नहीं चाहते । दोष ये हैं :


१. खद्दर बहुत वजनी होता है; महिलाओंको वह पसन्द नहीं आता ।
२. भारी होनेके कारण उसे धोना कठिन होता है ।
३. खद्दर बच्चोंका कपड़ा नहीं है, क्योंकि बच्चोंके कपड़ोंको बार-बार धोना पड़ता है और खद्दरको बार-बार धोना मुश्किल होता है ।
४. खद्दर में विविधता नहीं है और उसपर पक्का रंग नहीं चढ़ाया जा सकता ।
५. खद्दरपर धूल ज्यादा जमती है ।
६. खद्दर मिलके कपड़ोंसे महँगा है । हम हाथका कता सूत एक रुपयेका एक पौंड खरीदते हैं, जब कि अमृतसरमें भारतीय मिलका कपड़ा उसी भावसे यानी एक रुपयेका एक पौंड बिकता है।

धनवान लोग उसे इसलिए नहीं पहनना चाहते क्योंकि यह उनकी रुचिके अनुकूल नहीं होता; और गरीब लोग इसे इसकी कीमत, धुलाईका खर्च और दूसरे खर्चोंके कारण नहीं पहन पाते ।

गाँवों में कृषक वर्गके लोग ही इसका उपयोग करते हैं। उन्हें अपने खेतोंसे कपास मिलती है। उनकी स्त्रियाँ ओटने और कातनेका काम करती हैं । उन्हें पिजाई और बुनाईका पैसा देना पड़ता है, जो बहुत नहीं होता क्योंकि गाँवों में मजदूरी बहुत कम देनी पड़ती है। खादी उनके लिए एक ऐसी चीज है जिसे वे अपने दूसरे काम करते हुए, बिना ज्यादा खर्च और मेहनतके तैयार कर लेते हैं । उसका उपयोग करके वे पैसा बचा लेते हैं, जो उन्हें उतनी आसानीसे नहीं मिलता, जितनी आसानीसे शहर के लोगोंको मिलता है।

पत्र-लेखक खद्दर आन्दोलनसे सम्बद्ध हैं और उसमें विश्वास भी करते हैं । किन्तु यह स्पष्ट है कि उनका तर्क विलासिता और आलस्यका तर्क है । जहाँ इन दो दुर्गुणों-का राज्य है, वहाँ निश्चय ही खादीके प्रचारका कार्य सफल नहीं हो सकता। यदि हम स्वराज्य के इच्छुक हैं तो हमें काम करनेके लिए और कमसे कम कुछ समय के लिए विलासितापूर्ण रुचियोंका त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए। जो सैनिक सुविधाओं का त्याग करने को तैयार नहीं है, वह लड़ नहीं सकता । यदि भारत खुरदरी खादी के लिए मुलायम और सस्ते केलिको वस्त्रको नहीं छोड़ सकता तो उसे निश्चय ही स्वराज्य नहीं मिलेगा । मिलके सभी तरह के कपड़ोंको तत्काल त्याग देनेकी दृष्टिसे पंजाब सबसे उपयुक्त प्रान्त है । किन्तु पंजाबियोंकी ओरसे ही अड़चनें आ रही हैं, इससे पता चलता है कि हम कितने गिर गये हैं । यदि पंजाबी महीन और सुन्दर कपड़ा चाहते हैं तो उपाय यह नहीं है कि वे मिलका कपड़ा खरीदें, बल्कि यह है कि पंजाबी बहनें उतना ही महीन सूत कातें जितना आन्ध्रकी बहनें कातती हैं । आन्ध्र-पद्धतिकी कताईसे चाहे जितना बारीक कपड़ा मिल सकता है और यह काम