पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०१
प्रेमका अभाव या अतिरेक

बड़े आड़े-सीधे प्रश्न उठते रहते हैं। हमारा सुपरिन्टेन्डेन्ट ऐसे तरह-तरह के कपड़े क्यों पहनता है, भले ही वे कितने भी असुविधाजनक लगें और हम सिर्फ लंगोटी बाँधे ही क्यों फिरें? शिक्षक यदि ऐसे टेढ़े सवालोंका सन्तोषप्रद उत्तर देना चाहे तो उसे वही पहनना और खाना चाहिए जिसको वह अपने शिष्योंसे अपेक्षा करता है। भारतके जलवायुमें जाँघिया जो असलमें लंगोटीका ही एक बड़ा रूप है, आरामदेह चीज है। उसे पहननेवाले लोग कुरता या बंडी लेकर क्या करेंगे?

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ५-६-१९२४

१००. प्रेमका अभाव या अतिरेक

राम, शंकर, भरत इत्यादि अवतारोंके लिए मैंने एकवचनी प्रयोग किये हैं। इसपर वैष्णव भाई प्रेमसे उलहना देते हैं। उन्हें इस बातसे दुःख हुआ है कि मैंने 'राम' को 'श्रीरामचन्द्र प्रभु' और 'भरत' को श्री 'भरतसूरी' नहीं लिखा और विनयपूर्वक अनुरोध करते हैं कि मुझे अबसे इन पवित्र नामोंका उल्लेख आदरपूर्वक करना चाहिए। इन भाईको मैं खानगी खत लिखकर जवाब दे देता; परन्तु इस खयालसे कि इससे कदाचित् किसी अन्य वैष्णवके दिलको भी चोट पहुँची हो, मैं इस बातका विचार पाठकोंके सामने करता हूँ। पत्र-लेखक शायद इस बातको न जानते होंगे कि मैं खुद भी वैष्णव हूँ और मेरे कुटुम्बके इष्टदेव श्री रामचन्द्र प्रभु हैं। मैंने यहाँ एक बार रामको 'श्री रामचन्द्र प्रभु' केवल इन भाईको सन्तुष्ट करने के लिए लिख दिया है, पर खुद मुझे तो 'राम' नाम ही प्रिय है।

'श्री रामचन्द्र प्रभु' मुझे अपनेसे बहुत दूरके मालूम होते हैं। इसके विपरीत 'राम' तो मेरे हृदयमें राज्य कर रहे हैं। जहाँ मैंने राम भरत आदि पवित्र नामोंका प्रयोग किया है वहाँ मेरी दृष्टिमें तो मेरी भक्ति ही टपकती है। अगर ये वैष्णव भाई ऐसा दावा करें कि रामके प्रति उनका प्रेम मुझसे ज्यादा है तो मैं उनपर रामके दरबारमें दावा करूँगा और रामराज्यमें न्याय मेरे पक्षमें होगा।

हनुमानने जैसी प्रेमकी परीक्षा दी थी वैसी ही परीक्षा देनेकी इच्छा मेरी भी होती है। जो प्रियसे-प्रिय होता है वह निकटसे-निकट रहता है। उसे तो 'तू' ही कह सकते हैं। "तुम" या 'आप' से दूरी सूचित होती है। मैं अपनी माँको किसी दिन 'तुम' या 'आप' कह देता तो वह रोती; क्योंकि तब वह समझती कि उसका बेटा उससे दूर हो गया है।

मेरी जिन्दगीमें एक ऐसा समय था जब मैं रामको 'श्री रामचन्द्र' के रूपमें पहचानता था। परन्तु वह समय अब चला गया है। राम तो अब मेरे घर आ गये हैं। उन्हें अगर मैं 'तुम' या 'आप' कहूँ तो वे मुझपर रोष करेंगे। मेरे न माँ है, न बाप है और न भाई; ऐसा आश्रय विहीन हूँ मैं। मेरे तो अब राम ही सर्वस्व हैं। वही मेरी माँ, वही मेरा पिता, वही मेरा भाई और वही मेरा सर्वस्व है। मैं तो उसीके जिलाये जी