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भेंट: 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के प्रतिनिधिसे

रही हैं, इसके पीछे उनका यह विश्वास काम कर रहा है कि अहिंसाका तरीका असफल रहा है।

क्या आप बंगालमें राजनीतिक अपराधोंकी रोक-थाम करने तथा वहाँके युवकोंको मन, वचन और कर्मसे अहिंसा सिद्धान्तका समर्थक बना डालनेका कोई अमली कदम उठानेकी सोच रहे हैं?

हाँ, मैं अपने इन गुमराह मित्रोंको सही राहपर लानेके उपाय जरूर सोच रहा हूँ। मैं जान-बूझकर "मित्र" शब्दका प्रयोग कर रहा हूँ। इसलिए कि उनकी आत्म-त्यागकी भावनाके लिए मेरे हृदयमें किसीसे भी कम प्रशंसात्मक भावना नहीं है। पर मैं यह भी जानता हूँ कि उनके कामसे देशका बड़ा अहित होता है। इसके फलस्वरूप अंग्रेजोंका इस देशपर अपना शासन कायम रखना नामुमकिन भले हो जाये, परन्तु भारतको इस रास्ते चलकर कभी भी स्वराज्य नहीं मिल सकता। मेरा निश्चित मत है कि भारतकी आत्मा तत्त्वतः अहिंसामय और विनयशील है। इसलिए भारतमें हिंसाके पनपनेके लिए अनुकुल वातावरण नहीं है। ईश्वरकी कृपासे यदि मैं स्वस्थ रहा तो आशा है कि मैं अराजकतावादी गतिविधियोंका मुकाबला कर सकूँगा और अराजकतावादियों को दिखा दूँगा कि स्वराज्य प्राप्त करनेके मेरे कार्यक्रममें विशुद्ध और कष्टसाध्य आत्मत्यागकी गुंजाइश कहीं अधिक है और यदि वे पूरे उत्साहसे मेरा समर्थन करें तो वे अपने इरादोंके लिए ही नहीं अपने कामोंके लिए भी लोगोंकी श्रद्धाके पात्र बन जायेंगे। तब अदनेसे-अदना भारतीय भी बिना किसी संकोचके, दूसरे किसीको जोखिममें डाले बगैर उनके कामोंका अनुकरण करने लगेगा।

इसके पश्चात् हमारे प्रतिनिधिने दूसरे विषयकी चर्चा छेड़ दी, मध्य प्रान्तके स्वराज्यवादियोंके विद्रोहकी चर्चा। उसने कहा कि डा० मुंजेने इस आशयका वक्तव्य दिया है कि स्वराज्यवादी लोग अब अपनी सारी शक्ति कांग्रेसपर से श्री गांधीका प्रभाव खत्म करनेमें लगायेंगे और यह करेंगे कि कांग्रेस दलमें भाई-भाईका संघर्ष अनिवार्य हो जाये। इस वक्तव्यसे तो यही लगता है कि स्वराज्यवादियोंने विद्रोहकी ठान ली है। क्या आपका खयाल है कि मध्य प्रान्तसे बाहरके स्वराज्यवादी भी डा० मुँजेके विचारोंसे कमोबेश सहमत हैं? क्या आपको ऐसी आशंका है कि स्वराज्यवादी लोग आपके सिद्धान्त और कार्यक्रमके विरुद्ध विद्रोहका झण्डा उठायेंगे। उस हालतमें क्या आप उनके प्रति अपनी तटस्थता त्यागकर उनके विरुद्ध प्रचार शुरू करेंगे?

मैं नहीं जानता कि डा० मुँजेके विचारोंसे और भी बहुत-से स्वराज्यवादी लोग सहमत हैं या नहीं। वे सहमत हों या न हों, मुझे इससे कोई परेशानी नहीं, क्योंकि इससे किसी भी पक्षकी प्रतिष्ठाको हानि होने नहीं जा रही है, भले ही इसका कारण सिर्फ यही हो कि मैं "भाई-भाई" की लड़ाईमें शामिल नहीं होऊँगा। इस तरहकी कोई भी लड़ाई तो तभी चल सकती है जब दो पक्ष लड़ाईपर आमादा हों, किसी एकके चाहनेसे नहीं। राजनीतिक कामका मेरा जो कार्यक्रम है, उसमें ऐसी हर सम्भावनासे बचकर चलनेकी कोशिश रहती है। मेरे कथनका अभिप्राय ठीक वही है जो