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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हरएक राज्यकी प्रजा अपने-अपने स्थानीय सवालोंका निपटारा भले ही करे; परन्तु काठियावाड़में एक ही तरहके लोग रहते हैं; इसलिए उसे समस्त काठियावाड़की परिषद् करनेका अधिकार है और यह उसका फर्ज भी है। परिषद् सारी प्रजाके सामान्य सवालोंकी चर्चा तो कर ही सकती है, साथ ही वह विभिन्न स्थानोंके प्रश्नोंको भी हाथमें लेकर उनके विषयमें समस्त प्रजाका मत तैयार करके, उस मतके द्वारा मुकामी सवालोंके हलमें सहायता कर सकती है।

मैं "राजनीतिक" शब्दका व्यापक अर्थ एक पिछले अंकमें स्पष्ट कर चुका हूँ। मैं मानता हूँ कि इसका सच्चा अर्थ वही है। परिषद्को लोकप्रिय बनानेका काम अब किया जाना है। लोकप्रियताका अर्थ इतना ही नहीं है कि लोग उसकी सभाओंमें आने लगे; बल्कि इसका यह अर्थ है कि लोग परिषद्की मार्फत अपने दुःखोंको दूर कराने के उपाय खोजें और परिषद्की सलाहके अनुसार चलें। किन्तु इस कामसे पहले परिषद्के कार्यकर्त्ताओंको लोक-सेवा करनी चाहिए। उन्हें देहातके लोगोंमें जाकर काम करना चाहिए और उन्हींकी तरह गरीबी अपनाकर सादगीसे रहना चाहिए।

उन्हें राज्योंसे दुश्मनी नहीं ठाननी चाहिए। हमारा असहयोग राजाओंसे नहीं है। हमने अभी राजाओंसे आशा नहीं छोड़ी है और मैंने तो हरगिज नहीं छोड़ी है। ऐसा नहीं कि मैं राजाओंके जुल्मोंसे अनजान हूँ। मैं उनके अनियन्त्रित और बेजा खर्चसे बहुत व्यथित हूँ। उन्हें स्वदेशवासकी बनिस्बत यूरोपवास ज्यादा पसन्द है। यह खतरनाक बात है। परन्तु मैं उसके लिए उनको दोष नहीं देता। यह भी अंग्रेजी शासन-प्रणालीका ही एक फल है। राजा लोग लड़कपनसे बिलकुल पराधीन रहते हैं। अंग्रेजी शिक्षक उनके संरक्षक बनते हैं। उन्हें निर्देश होता है कि वे राजाओंको अंग्रेजोंके समान बनायें, उनमें अंग्रेजी शासनका प्रेम पैदा करें और अंग्रेजोंकी तमाम बातोंमें उनकी रुचि उत्पन्न करायें। हम कितने ही धनी लोगोंमें भी यूरोपके प्रति ऐसा झुकाव देखते हैं। राजा लोगोंमें यह कुछ अधिक मात्रामें दिखाई देता है। दोनोंके इस विदेश-प्रेमका कारण एक ही है। मेरी पक्की राय है कि यदि काठियावाड़में अर्थात् देशी राज्योंमें लोकमत तैयार हो और वह जड़ पकड़ ले तथा लोग निर्भय बन जायें तो हमारे राजा जल्दी ही उसके आगे झुक जायें।

राजा लोगोंमें बहुतेरे ऐब हैं। फिर भी मैं उन्हें सरल मानता हूँ। वे ईश्वरसे डरते हैं। उनमें लोकमतका डर तो बहुत होता है। ये दोनों मेरे निजी अनुभव हैं। परन्तु जहाँ लोकमत हो ही नहीं अथवा जहाँ लोग महज खुशामदी हों, वहाँ राजा बेचारा क्या करे? जब राजाओंको उनका दोष बतानेवाला और कड़वी बातें कहनेवाला कोई नहीं मिलता तो वे निरंकुश बन जाते हैं; और फिर उन्हें सरकारकी मदद भी प्राप्त है। इस प्रकार परिस्थितियाँ उनकी शत्रु और अवनतिका कारण बन जाती हैं। हाँ, यह सच है कि राजा बड़े भोंडे ढंगसे जुल्म करते हैं। इसलिए वह हमें बहुत खलता है। इसके विपरीत सरकारका जुल्म सुधरे हुए ढंगसे चलता है। इसलिए वह असह्य नहीं लगता। फिर अंग्रेजी शासनमें तो कितने ही सहयोगी मिल जाते हैं और लोकमतकी सहायता भी उपलब्ध रहती है; देशी राज्योंमें अभी थोड़े ही साहसी