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मेरे विचार

लोग हिम्मतवर निकलते हैं। इसलिए उन्हें दबा देना आसान होता है। ऐसा होते हुए भी मैं मानता हूँ कि यदि थोड़े से भी विनयी, नम्र, सुशील और विवेकवान् लोक-सेवक पैदा हो जायें तो राजा लोग उनके सामने झुकेंगे और उनका यह झुकना डरके कारण नहीं, कार्यकर्त्ताओंके गुणके कारण होगा।

यदि हम मनमें राजाओंके प्रति शंका रखकर काम शुरू करेंगे, उनकी बुराई ही करनेका इरादा रखेंगे और उनकी अच्छी बातोंकी ओर देखेंगे तक नहीं तो हम राजाके बहीखातेमें पहलेसे ही खर्च की मदमें दर्ज कर लिए जायेंगे और फिर जमा-की मदमें दर्ज होनेके लिए बहुत मेहनत करनी होगी।

इससे कोई यह न समझे कि मैं भोरुतामें वृद्धि कर रहा हूँ। मैं उद्दण्डता और नम्र निर्भयताका भेद बता रहा हूँ। आमका पेड़ ज्यों-ज्यों बढ़ता है त्यों-त्यों झुकता है। उसी तरह बलवान्‌का बल ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है त्यों-त्यों वह नम्र होता जाता है और उसमें ईश्वरका डर बढ़ता जाता है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ८-६-१९२४

१०६. मेरे विचार

एक भाईने मेरे विचारोंपर किसी जैन मुनिकी राय लिख भेजी है और वे चाहते हैं कि मैं उसपर कुछ कहूँ। मुनिजीकी राय और उसपर मेरी टिप्पणी इस तरह है:

(१) अगर गांधीजीके खयालातके मुताबिक सोलहों आने काम होने लगे तो इससे जैन धर्मको नुकसान पहुँचेगा।

मुझे विश्वास है कि अगर मेरे विचार कार्यरूपमें परिणत हो जायें तो उससे संसारका कल्याण ही होगा। संसारका कल्याण जैन धर्म अथवा किसी दूसरे मजहबको नुकसान पहुँचा ही नहीं सकता। अहिंसाका मतलब है प्रेम। शुद्ध प्रेमके ही बलपर सुधार करनेके तरीकेसे नुकसान होना कैसे मुमकिन है?

(२) खादीसे अन्त्यजोंका फायदा है; मगर इससे जैनोंका तो बेहद नुकसान है।

यह राय मेरी समझमें नहीं आ सकती। अन्त्यज क्या कभी श्रावक हो ही नहीं सकता? फिर श्रावकोंको नुकसान पहुँचनेका अर्थ तो यही हो सकता है कि जैन लोग विदेशी कपड़ेकी जो तिजारत करते हैं उसके टूट जानेका अन्देशा हो सकता है। परन्तु अगर उनका यह व्यापार समाप्त भी हो जाये तो वे दूसरा व्यापार कर सकते हैं। वे खादीकी ही तिजारत क्यों न करें? जैनोंके अलावा दूसरे लोग भी विदेशी कपड़े का व्यापार करते हैं। फिर दूषित व्यापारका बन्द होना तो अन्ततः धार्मिक दृष्टिसे वांछनीय ही माना जायेगा।

(३) व्यापारी चाहे कोई भी काम करें, उससे उसे पाप नहीं लगता।