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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह बात जैन धर्मके मुताबिक नहीं हो सकती। मैंने किसी भी मजहबमें ऐसा विचार नहीं देखा।

(४) गांधीजीके स्तुति-स्तोत्रोंमें बहुत अतिशयोक्ति की जाती है। उनमें महावीरके समान गुणोंका आरोप करना नामुनासिब है।

मैं इस रायसे बिलकुल सहमत हूँ। यदि स्तुतिकार मेरी तारीफके पुल बाँधना छोड़कर केवल अपने कर्त्तव्यका पालन करनेमें ही लगे रहें तो यह मेरी बहुत बड़ी स्तुति होगी और उसमें न तो अत्युक्तिकी गुंजाइश रहेगी और न किसी अन्य दोषकी।

(५) अन्त्यज चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो जाये, फिर भी वह है तो आखिर अन्त्यज ही।

इस विचारमें न तो धर्म है और न विवेक।

(६) गांधीजी अपनेको कट्टर वैष्णव मानते हैं। परन्तु इससे उनका मतलब कुछ और ही है। यदि गांधीजीके तमाम विचार कार्यान्वित हो जायें तो तमाम धर्मोका नाश हो जायेगा। गांधीजी ढोंगी हैं।

मेरा विश्वास तो यह है कि यदि मेरे सभी विचारोंके अनुसार काम होने लगे तो सभी मजहबोंकी बढ़ती हो और तमाम मजहबी झगड़े समाप्त हो जायें। अगर मैं कहूँ कि मैं ढोंगी नहीं हूँ तो इसे कौन मानने लगा? इसलिए ढोंगीपनके इल्जामका मुनासिब जवाब तो मेरी मौतके बाद ही मिलेगा।

उन्होंने मुझपर इसके अलावा दूसरे इल्जाम भी लगाये हैं। परन्तु मैंने ऊपर वे ही दिये हैं जो खास-खास हैं। जिन भाईने इन इल्जामोंको लिखकर मेरे पास भेजा है, उसको तथा दूसरे लोगोंको, जिन्हें मेरे विचार पसन्द हैं, मैं सलाह देता हूँ कि वे मेरे विचारोंकी शाब्दिक सफाई देनेके फेरमें हरगिज न पड़ें। यह भी एक तरहसे मेरे विचारोंपर अमल करना ही है। जो लोग मेरे विचारोंके अनुसार चलते हैं उन्हें तो यह देहाती कहावत याद रखनी चाहिए---"आम खानेसे मतलब, पेड़ गिनने से क्या?" आरोपोंका उत्तर देनेसे द्वेष पैदा होता है, वक्त फिजूल जाता है और एक-दूसरेके प्रति मनमें दुर्भाव प्रबल होते हैं सो अलग। फिर हमें यह भी समझना चाहिए कि यह मानने की कोई जरूरत नहीं कि सभी आरोप द्वेषसे प्रेरित होकर ही लगाये जाते हैं। मेरी त्रुटियोंको देखनेवाले कितने ही लोग सच्चे दिलसे इस बातको मानते हैं कि मेरे बहुत-से कामोंसे देशको नुकसान ही पहुँच रहा है। उचित तो यह है कि हमारे मित्रोंपर जो दोष लगाये जायें हम उनकी छानबीन करके देखें और अगर हमें उनमें से कोई दोषारोपण उचित मालूम पड़े तो हम उसे उस मित्रको बता दें। इन्सान अपने विरोधी पक्षकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं रहता; परन्तु जब उनके मित्र उसे उसका दोष बताते हैं तब अगर उसमें जरा भी सरल भाव हो तो वह उससे तुरन्त चेत जाता है और विनयपूर्वक आत्म-निरीक्षण करने लगता है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ८-६-१९२४