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भेंट: 'हिन्दू' के प्रतिनिधिसे

यदि स्वराज्यवादियों का कार्यक्रम असहयोगके लिए अनिवार्य-मनोवृत्तिके नितान्त विपरीत है तो फिर आप उनके कार्यक्रमका अनुमोदन सफलताकी दृष्टिसे प्राप्त होनेवाले परिणामके आधारपर कैसे करते हैं? इसपर महात्माजीको हँसी आ गई; उन्होंने कहा:

यदि स्वराज्यवादियोंका कार्यक्रम सफल हो जायेगा तो मैं सबसे पहले उस दलमें शामिल होने जाऊँगा और उसे बधाई दूँगा। तब मैं अपने अहम् और अपनी विचारधाराको एक किनारे रख दूँगा।

इसके बाद बातचीत हिन्दू-मुस्लिम प्रश्नपर आ गई। मैंने पूछा: बहुतसे हिन्दुओं का खयाल है कि आपने अभी हालमें हिन्दू-मुस्लिम तनातनीपर जो लेख[१] लिखा है उसमें आपने मुसलमान भाइयोंकी अपेक्षा उनसे अधिक त्याग करनेकी माँग की है और यह अन्याय है।

पहली बात तो यह है कि मैंने हिन्दुओंसे पर्याप्त मात्रामें त्यागकी माँग नहीं की है; किन्तु यदि वे केवल अधिकसे-अधिक त्याग करें तो मैं एक दिनमें, न केवल स्वराज्य प्राप्त करनेका वादा करता हूँ बल्कि यह वादा भी करता हूँ कि हिन्दू सदैव प्रगति करेंगे और मुसलमान उनकी मुट्ठीमें रहेंगे।

किन्तु आप उन आर्यसमाजियोंसे क्या कहते हैं जिनका कहना है कि आपने अपने लेखमें उनके साथ भी अन्याय किया है। उनका खयाल है कि आपने मौलाना अब्दुल बारी और मौलाना मुहम्मद अलीकी पीठ ठोंकी है और उनका समर्थन किया है। आप वैसा ही स्वामी दयानन्द सरस्वती और श्रद्धानन्दजीके लिए भी कर सकते थे। जान-बूझकर आर्यसमाजकी निन्दा करनेमें क्या आपका कोई विशेष उद्देश्य है? क्या आप इस सम्बन्धमें अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे?

जरूर। किन्तु मैंने दोनों मौलानाओंमें से किसीका जरा भी समर्थन नहीं किया है। मैंने तो स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि मुहम्मद अलीने कांग्रेसमें भाषण देते हुए अछूतोंके विभाजनका जो उल्लेख किया है, वह अनुचित है और उन्होंने अपनी भुलको स्वीकार कर लिया है। मैं इसके लिए उनकी प्रशंसा करता हूँ। मैंने यह भी कहा है कि अब्दुल बारीके नामसे ऐसे वक्तव्य छपे हैं जिनकी कोई सफाई नहीं दी जा सकती। इसीलिए मैंने उन्हें खतरनाक मित्र बताया है। मैं इन दोनों मित्रोंके विरुद्ध इसलिए अधिक कुछ कहनेमें असमर्थ हूँ, क्योंकि मैं इससे अधिक कुछ नहीं जानता। इसी प्रकार मैं आर्यसमाजियोंके ख्यातनामा संस्थापक [ दयानन्दजी ] तथा श्रद्धानन्दजीको भी जानता हूँ। इसलिए मैंने उनका ध्यान उस बातकी ओर, जिसे मैं उनकी कमजोरी समझता हूँ, खींचनेमें संकोच नहीं किया है। मेरा उद्देश्य स्पष्ट है। यदि मैं इन मुख्य व्यक्तियों तथा परस्पर संघर्षरत मुख्य धर्मोके बारेमें वह सब-कुछ न कहता जो मैंने अनुभव किया है तो मैं अपने प्रति और अपने उद्देश्यके प्रति झूठा साबित होता। मैं इस बातके लिए उत्सुक हूँ कि आर्यसमाज और श्रद्धानन्दजी समाजकी

 
  1. देखिए पृष्ठ १३९-५९।