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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि इसमें जिसे जहाँ भी कोई ऐब दिखाई दे, इसमें वहीं एक चिह्न लगा दे। दूसरे दिन उस चित्रमें एक इंच जगह भी निशानोंसे खाली नहीं बची। किन्तु फिर भी उसने कहा---जबतक मुझे इस चित्रसे सन्तोष है, तबतक मैं इसे नहीं जलाऊँगा।

मुझे सुबह यही चित्रकार याद आया। मुझे उसकी दृष्टि ठीक मालूम हुई। यदि हम दोषोंकी खोज करने लगें तो उनका पार पाना कठिन होगा। ईश्वरने मनुष्यमें मोह जैसी चीज रख दी है। हम उसके वशवर्ती होकर अपना काम करते रहते हैं। आप तो इन तीनों पत्रोंमें जो सार हो उसीको ग्रहण करें। पहले तीखे आलोचकने लिखा है कि न तो विद्यार्थियोंमें कुछ दम है और न अध्यापकोंमें। वे चाहते हैं कि मैं उनका वह पत्र 'नवजीवन' में छापूँ और उसपर अपनी टिप्पणी भी दूँ; किन्तु मैं न तो उसे छापूँगा और न टिप्पणी ही दूँगा। यह आरोप किया गया है कि विद्यार्थी सादगीसे नहीं रहते। इसमें कितना तथ्य है, इसपर आपको विचार करना चाहिए। मद्रासी भाईसे तो मैं निपट लूँगा। अगर मेरा यह भाषण प्रकाशित नहीं किया गया तो वे यही समझेंगे कि मैंने सचमुच कोई महत्वपूर्ण भाषण दिया होगा।

यह तो हुई प्रस्तावना। मुझे आपके सम्मुख क्या कहना है, इसपर मैंने विचार अवश्य ही किया है। विचार नहीं किया है, यह नहीं कह सकता, क्योंकि मुझे झूठी आत्मनिन्दा करने की आदत नहीं है। मेरे पिछले विचार दो वर्ष तक यरवदा आश्रममें[१] शान्तिपूर्वक चिन्तन करनेसे और भी दृढ़ हो गये हैं। जो चीज मैंने देशके सामने रखी है मुझे उसपर जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। हमने गुजरात विद्यापीठकी स्थापना की, महाविद्यालय कायम किया, उसमें सिन्धियों और दक्षिणात्योंको लाकर भर दिया और गुजरातियोंके लिए स्थान नहीं रखा ---मुझे इसका भी कोई पछतावा नहीं है। गुजरातका धर्म है कि वह दक्षिण और सिन्धसे अच्छी बातें ग्रहण करे। यदि श्री कृपलानी अपने आपको बिहारी मानते हों तो हमें उनको बिहारी मानकर ग्रहण करना चाहिए। उन्हें गुजरातमें भी कुछ ग्रहण करने योग्य मिलेगा। यदि वे बिहारमें बुनकर थे तो यहाँ कातना और पींजना सीखेंगे और तब कहेंगे कि वे जितने बिहारी हैं, उतने ही गुजराती हैं। किन्तु उनसे ऐसा कराना आपके ही हाथोंमें है। वे सिन्धसे आये हैं, इसलिए हमारे मेहमान हैं। हम गुजरातीको तो गालियाँ भी देते हैं। हमने इनको अपनी गरजसे रखा है, इसलिए वे हमें जो कुछ सिखायेंगे हम इनसे वही सीखेंगे। इसमें गुजरातकी कोई हानि नहीं है, लाभ ही है। मेरा वश चले तो मैं इस विद्यालयमें एक भी गुजरातीको न रखूँ और दाक्षिणात्यों और सिन्धियोंको ही भर दूँ। मैं उनसे कहूँ कि वे सभी काका और मामा-जैसे बनें। यदि हमें सब लोग काका और मामा-जैसे मिल जायें तो हमें और क्या चाहिए।

हमने विद्यापीठकी स्थापना किसलिए की है? असहयोगके लिए? असहयोग किससे? क्या सरकारी कालेजोंके विद्यार्थियों और अध्यापकोंसे? नहीं। हमारा असहयोग उनसे बिलकुल नहीं है। हमारा असहयोग तो पद्धतिसे है। हमारा यह असहयोग

 
  1. यरवदा जेल जहाँ गांधीजी मार्च, १९२२ से फरवरी, १९२४ तक कैद रहे थे।