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भाषण: गुजरात विद्यापीठमें

किस तरहका है और इस असहयोग द्वारा हम क्या करना चाहते हैं इसपर विचार करते हुए मुझे दो गाथाएँ याद आ गई। एक है बाघ और बकरेकी। एक बाघ और बकरा साथ-साथ रखे गये। बाघ था पिंजड़ेमें और बकरा था बाहर। बकरेको अच्छा दाना-घास दिया जाता था। किन्तु बकरा फिर भी दिनपर-दिन सूखता जाता था। मेरे जैसे एक विचक्षण मनुष्यने समझ लिया कि बकरा बाघके पास होनेसे नहीं पनप रहा है। बाघकी नजरसे दूर हटाये जानेपर वह मामूली दाना-चारा खाकर भी उछलने-कूदने लगा और मोटा-ताजा हो गया।

दूसरी कहानी सर नारायण चन्दावरकरने लिखी है। वह मैंने जेलमें पढ़ी थी। सर नारायण एक दिन पूनामें घूमने जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया एक मेमनेको घर ले जा रही है। मेमना एक साहबके घरका था। वहाँ उसके लिए दाने-घासकी सुविधाका तो पूछना ही क्या? परन्तु उसे वहाँ चैन नहीं था। जब बुढ़िया उसे ले जा रही थी तब वह उछल-कूद रहा था और बुढ़ियाको खींचे डाल रहा था क्योंकि वह अपने घर जा रहा था। वह पराधीनतासे स्वतन्त्रतामें जा रहा था। कोई भी जीवधारी हो, वह स्वतन्त्रतामें ही फूल-फल सकता है, परतन्त्रतामें नहीं । इसी बातको तुलसीदासने अपनी अनुपम वाणीमें इस तरह कहा है---"पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।"

सरकारी शिक्षण संस्थाओंमें अच्छीसे-अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं, योग्य अध्यापक मिलते हैं और बड़ी-बड़ी इमारतें बनी होती हैं; किन्तु वहाँ फिर भी हमारे ललाटपर तो वही काला दाग लगा रहता है। हमारे भाग्यमें तो नौकरी--बाबूगिरी--के सिवा अन्य कुछ लिखा ही नहीं है। बहुत हुआ तो वकालत सूझ सकती है। किन्तु अब तो वकालत भी नहीं सूझती। हमें तो अब ग्रेजुएट होनेपर ३० रुपयेसे शुरू होनेवाली नौकरी ही सूझती है। ज्यादासे-ज्यादा आगे बढ़े तो गुजरात कालेजमें अध्यापक हो गये। बस, यहीं हमारी हद है। यहाँ महाविद्यालयमें तो जैसे-तैसे पढ़ाई होती है; अक्षर-ज्ञान जितना मिल जाये वही गनीमत। महाविद्यालयकी इमारतपर छप्पर हुआ तो हुआ वरना वह भी नदारद। मकान मालिक जब चाहे नोटिस देकर निकाल बाहर कर सकता है। विद्यापीठके लिए वल्लभभाई दर-दर भीख माँगते फिरते हैं और विद्यापीठ कल रहेगा या नहीं यह सवाल भी हमेशा बना रहता है। ऐसी हालत है। गुजरात कालेजपर तो सूर्य अस्त ही नहीं होता। विद्यापीठपर रोज सूर्य उगता है, और रोज अस्त होता है। दुनियाका कुदरती कानून यही है। हमें इस कानूनपर ही चलकर अपना उद्धार करना है।

हम अपना आदर्श ऊँचा ही रखेंगे। हम ऊँचे आदर्शतक पहुँच नहीं सकते और हमसे भूलें होती हैं, यह ठीक है। हमसे पाप हो जाता है, यह भी ठीक है; परन्तु हम पापको पुण्य रूप तो नहीं बताते।

"सा विद्या या विमुक्तये", यह हमारा आदर्श है। भाई किशोरलालने[१] मुझसे कहा कि क्या हम इस महान् सूत्रका संकुचित अर्थ करके उसका दुरुपयोग तो नहीं

 
  1. किशोरलाल मशरूवाला।