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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर रहे हैं? भाई किशोरलालकी बातपर मुझे बहुत विचार करना पड़ता है। मैं उनकी बातपर रुककर विचार किये बिना नहीं रह सकता। मैंने विचार करके देखा कि इस सूत्रका दुरुपयोग नहीं हो रहा है। जो इस मुक्तिको पा सकता है वही उस मुक्तिको पा सकता है। जो इतनी छोटी-सी मुक्तिको भी प्राप्त नहीं कर सकता उसे बड़ी मुक्ति कैसे मिल सकती है? अतएव मुक्तिके प्राकृत, वास्तविक दोनों अर्थोको ध्यानमें रखते हुए हमारा आदर्श यही है।

मैंने इस विद्यापीठको जन्म दिया, इस कारण आज मेरे चित्तमें जरा भी अशान्ति अथवा जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। यदि महाविद्यालयके तमाम लड़के चले जायें और सरकारी कालेजमें भरती हो जायें तो भी मैं तो प्रसन्न ही रहूँगा और कहूँगा कि ये कैसे नासमझ हैं और मैं कितना समझदार हूँ। हिन्दुस्तानके उद्धारका दूसरा उपाय ही नहीं है। हम सब लोग महामोहमें ग्रस्त हैं। इससे हमें यह बात दिखाई नहीं देती। मैं तो मरते दम तक यही कहूँगा कि मेरी दृष्टिमें बहिष्कारके सिवा कोई दूसरा उपाय ही नहीं है। जब मैं देखूँगा कि स्थिति ऐसी आ गई है कि हम पूरा सहयोग कर सकते हैं तभी मैं मुँहसे दूसरी बात निकालूँगा। तबतक तो मैं, चाहे सारा हिन्दुस्तान मुझे छोड़ दे, बहिष्कारपर ही अटल रहूँगा। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि मैं एक अनुभवी मनुष्य हूँ और मैंने अपने इस विचारके पीछे बरसों दे डाले हैं। मैं यह भी कह सकता हूँ कि मैंने इसके लिए तपश्चर्या की है। दूसरी बात मेरे मुँहसे निकल ही नहीं सकती। जिस मनुष्यको यह मालूम है कि पाँच बीसी सौ होते है, क्या वह यह कहेगा कि चार बीसी या छ: बीसी सौ हो सकते हैं? यरवदा-आश्रममें मेरे विचार अधिक दृढ़ ही हुए हैं।

यह सवाल है कि पढ़ाई खत्म हो चुकनेके बाद लड़के क्या करें? कृपलानीजीने भावी जीवनके विषयमें मेरे कहनेके लिए कोई बात नहीं छोड़ी है। मुख्य बात यह है कि हम भयसे अपना उद्धार करना चाहते हैं। मैं कहता हूँ कि आपको नौकरी करनी हो तो आप खुशीसे करें और अक्षरज्ञानको बेचना हो तो उसे भी बेचें। यहाँ तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि एक अंग्रेज युवक क्या करता है। मैं अंग्रेजों का तिरस्कार नहीं करता। बहुत-से लोग शायद इस बातको न जानते हों कि मैं अंग्रेजोंपर मुग्ध हूँ। उनसे मैंने बहुतेरी बातें सीखी हैं। मैं अंग्रेजोंका अनुकरण त्याज्य नहीं मानता। मैं तो अपनी आजाद जमीन चाहता हूँ। फिर उसमें मैं रंग चाहे जहाँसे लाकर भरूँ। मेरे साथी अंग्रेज मित्रोंने मुझे कभी यह नहीं पूछा कि यदि वे मेरे साथ न रह सकेंगे तो उनका क्या होगा? वे अपनी आजीविका छोड़-छोड़कर मेरे साथ आये हैं। उनकी जरूरतोंके बारेमें मेरा अन्दाज गलत निकला। फिर भी उनमें से किसीने भी मुझे ऐसी कड़वी बात नहीं कही कि मैंने गलत अन्दाज क्यों लगाया? वे जानते थे कि मैंन शुद्ध भावसे अन्दाज लगाया था। फिर उनमें से हरएकके मनमें यह बात रही कि क्या मैं गांधीका जिलाया जीऊँगा? मुझे जिलानेवाला तो ईश्वर है। जिस पुरुषने--- चैतन्यरूप प्रभुने---आपको पैदा किया है वहीं आपको रोटी भी देगा। क्या मुसलमान और क्या हिन्दू, सब इस बातको जानते हैं? परन्तु आज तो