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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं जानता हूँ कि इसके लिए आमुल पुनर्गठनकी जरूरत है। आजकल फौजकी नौकरीसे निवृत्त लोगोंको वार्डर आदि रखा जाता है। इस पुनर्गठित व्यवस्थामें बिलकुल दूसरे ही ढंगके लोग आवश्यक होंगे। किन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि यह सुधार बिना बहुत ज्यादा अतिरिक्त खर्चके किया जा सकता है।

फिलहाल जेल धूर्तोके लिए आरामगाह और साधारण सीधे-सादे कैदियोंके लिए यन्त्रणा-गृह होते हैं। अधिकांश कैदी सीधे-सादे ही होते हैं। चलते-पुरजे कैदियोंको तो वे जो चाहते हैं मिल जाता है, किन्तु सीधे-सादे और कम हिकमती कैदियोंको, जो आवश्यक होता है, वह भी नहीं मिल पाता। उस योजनामें, जिसकी मात्र मोटी रूपरेखा खींचनेका प्रयत्न मैंने किया है, बदमाश कुटिलता त्यागे बिना चैनसे नहीं रह पायेंगे और सोधे-सादे निर्दोष कैदियोंको परिस्थिति विशेषमें जितना सम्भव है उतना अनुकूल वातावरण मिलेगा। ईमानदारी लाभका और बेईमानी घाटेका सौदा सिद्ध होगा।

यदि ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि कैदी अपने भोजनका मूल्य कामके रूपमें चुकायें तो वे निठल्ले नहीं बैठेंगे और केवल खेती तथा कपासके मालका उत्पादन और इनसे सम्बन्धित हस्तकलाएँ रखने-भरसे आपकी देखरेखपर होनेवाला भारी खर्च बहुत कम हो जायेगा।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-६-१९२४

११५. अस्पृश्यता और स्वराज्य

एक सज्जन गम्भीर भावसे लिखते हैं:

यह "अस्पृश्यता" शब्द ही मुझे बिलकुल ऊँटपटाँग लगता है; क्योंकि ऐसा कोई वर्ग विशेष तो है नहीं जिसे "स्पृश्य" कहा जाता हो। ऐसा तो बहुत कम ही होता है कि हम सचमुच किसीके पास जाकर उसे छूते हों---आवश्यकता ही आ पड़े तो बात दूसरी है। तथाकथित 'अस्पृश्यों' को छोड़कर अन्यके सम्बन्धमें तो आमतौरपर यही देखा जाता है कि वे परस्पर किसीके निकट आने या बगलसे होकर गुजर जानेका खयाल नहीं करते। स्थिति यही है; कोई भी किसीके पास न अदबदाकर जाता है, न उसके बदनको हाथ लगाता है। सभी लोग अगर इसी तरह अपने कामसे-काम रखें और "अस्पृश्यों" को भी अपनी राह चलने दें तो क्या इस पेचीदे मसलेका हल नहीं निकल आता?

मुझे यकीन है, आप यह हरगिज नहीं चाहते कि लोग "अस्पृश्यता" के पापको धोनेकी खातिर किसी "अस्पृश्य" के पास जायें और उसके बदनको हाथ लगायें। अगर आप यह मानते हैं कि स्पर्श करना कोई जरूरी बात नहीं है तो आप इस कुप्रथाको "अस्पृश्यता" की संज्ञा क्यों देते हैं? आपके "अस्पृश्यता" शब्दका