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अस्पृश्यता और स्वराज्य

प्रयोग करनेसे तो यही ध्वनि निकलती है कि इस बुराईको दूर करनेके लिए "अस्पृश्यों" का शरीरतः स्पर्श करना जरूरी है। मुझे तो लगता है कि कुछ हदतक इस आन्दोलनके प्रति कट्टरपंथियोंके विरोधका कारण यही है। मेरा खयाल है कि हम अपने भाईको भी रोज-रोज नहीं छूते और इसलिए यदि हम इस समस्याको हल करना भी चाहें तो भी हमारा किसी दूसरे व्यक्तिका स्पर्श करना न जरूरी है और न अन्यथा उपयोगी। इसलिए उस समुदायकी आज जो स्थिति है, उसको व्यक्त करनेके लिए "अनुपगम्यता" शब्द ज्यादा उपयुक्त होगा। बाहरसे हम उन्हें कितना भी गले क्यों न लगायें, हमारे दिलोंमें सहिष्णुताको भावनाके बिना स्थितिमें सुधार सम्भव ही नहीं है।

और फिर मेरी समझमें यह बात भी नहीं आती कि इस कुप्रथाके अस्तित्वका स्वराज्यकी स्थापनासे क्या सम्बन्ध है। कुछ भी कहिए, "अनुपगम्यता" हिन्दू समाजकी अनेक बुराइयोंमें से एक है। सम्भव है वह दूसरी बुराइयोंके मुकाबले कुछ बड़ी हो। किन्तु जहाँ समाज है वहाँ इससे मिलती-जुलती बुराइयाँ तो रहेंगी ही। क्योंकि ऐसा कौन-सा समाज है जिसमें बुराइयाँ न हों? इसे स्वराज्यके मार्गमें बाधक क्यों माना जा रहा है और इसके निवारणको आप स्वराज्य प्राप्त करनेकी योजनाकी पूर्व-शर्तकी तरह क्यों पेश करते हैं? क्या स्वराज्य-प्राप्तिके बाद इस समस्याका समाधान सम्भव नहीं है? तब अगर लोग राजी-खुशीसे इस कुप्रथाको न छोड़ सकें तो इसे कानून बनाकर तो दूर किया ही जा सकता है।

हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच स्थायी एकता स्थापित होना निहायत जरूरी है, यह बात मैं बखूबी समझ सकता हूँ; क्योंकि इन दो बड़े समुदायोंके आपसी झगड़ेसे सरकार फायदा उठा सकती है और उसकी आड़ लेकर हमारी माँगें अनिश्चित कालतक टालती जा सकती है। इस कुप्रथाके सामाजिक, धार्मिक और मानवीय पहलुओंको भी मैं समझ सकता हूँ, लेकिन यह बात मेरी समझमें नहीं आती कि इसे ऐसी राजनीतिक समस्या किस प्रकार माना जा सकता है, जिसका समाधान किये बिना स्वराज्यकी प्राप्ति असम्भव हो।

मेरा झगड़ा शब्दको लेकर नहीं है। लेकिन जिस प्रणालीकी बदौलत हिन्दू लोग एक बहुत बड़ी संख्यामें जानवरोंसे भी अधम स्थितिमें पहुँचा दिये गये हैं, उस प्रणालीको मैं अन्तरात्मासे घृणा करता हूँ। निस्सन्देह यदि इन बेचारे पंचमोंको---मैं अस्पृश्य शब्दका प्रयोग नहीं कर रहा हूँ---अपनी राह चलने दिया जाये तो यह कठिन समस्या अपने-आप हल हो जाये। लेकिन, दुर्भाग्यवश, न उनकी अपनी कोई राह है और न उसपर चलने की समझ। क्या किसी जानवरकी अपनी खुदकी कोई राह या समझ हुआ करती है--मालिककी राह ही उसकी राह और मालिकका मन ही उसका मन है। क्या पंचम लोग किसी भी स्थानको अपना स्थान कह सकते हैं? जिस सड़कको वह साफ करता है और जिसे स्वच्छ बनाये रखने के लिए अपना पसीना बहाता है,