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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उस सड़कपर भी वह नहीं चल सकता। जिस प्रकारकी पोशाक दूसरे लोग पहनते हैं, वैसी पोशाक पहननेतक की आजादी उसे नहीं है। पत्र-लेखक महोदय सहिष्णुताकी बात करते हैं। यह कहना कि हम हिन्दू लोग अपने पंचम भाइयोंके प्रति तनिक भी सहिष्णुता दिखाते हैं- -भाषाका दुरुपयोग करना है। हमने ही उन्हें पतनके गर्तमें गिराया है और फिर हम ही उनकी इस गिरावटको उनके पुनरुत्थानके खिलाफ एक कारण बतलानेकी धृष्टता करते हैं।

मेरे लेखे तो स्वराज्य वही है जिसमें साधारणसे-साधारण देशवासी भी आजाद हो। जब हम सबके-सब कष्ट भोग रहे हैं, अगर ऐसे समयमें भी हम पंचमोंकी हालत सुधारनेका विचार न करें तो स्वराज्यके मदमें चूर हो जानेपर इसकी सम्भावना नहीं रहेगी। यदि हमारे लिए स्वराज्यकी एक पूर्व शर्तके तौरपर कुछ देकर भी मुसलमानोंके साथ अमनसे रहना जरूरी है तो पंचमोंको भी शान्तिसे जोनेका अधिकार देना उतना ही जरूरी है। जबतक हम ऐसा नहीं करते तबतक हम न्यायपूर्वक और आत्म-सम्मानके साथ स्वराज्यकी बात नहीं कर सकते। मेरी दिलचस्पी भारतको सिर्फ अंग्रेजोंकी दासतासे ही मुक्त करनेमें नहीं है। मैं तो इस देशको हर तरहकी दासतासे मुक्त करनेपर तुला हुआ हूँ। मैं किसी "साँपनाथ" की जगह "नागनाथ" को प्रतिष्ठित नहीं करना चाहता। अतः मेरे लिए स्वराज्य आन्दोलन आत्म-शुद्धिका आन्दोलन है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-६-१९२४

११६. आर्यसमाजी भाई

सारे हिन्दुस्तानके आर्यसमाजी भाई मुझपर बड़ा तीव्र रोष प्रगट कर रहे हैं। मेरे पास ऐसे पत्र आये पड़े हैं जिनमें आर्य समाज, उसके महान् संस्थापक तथा स्वामी श्रद्धानन्दजीके सम्बन्धमें हिन्दू-मुसलमानवाले वक्तव्यमें किये मेरे उल्लेखका आवेशपूर्ण विरोध किया गया है। ये खत और तार गाजियाबाद, मुलतान, दिल्ली, सक्खर, कराची, जगराँव, सिकन्दराबाद, लाहौर, सियालकोट, इलाहाबाद, इत्यादि जगहोंसे आये हैं। इनमें उन पत्रोंकी गिनती नहीं की गई है, जो लोगोंने निजी तौरपर मुझे लिखे हैं। इनमें लगभग सभी पत्र-प्रेषक यह अपेक्षा रखते हैं कि मैं उनके ऐतराजोंको प्रकाशित भी करूँ। कितने ही महाशयोंने तो मुझसे इसका आग्रह भी किया है। मैं इन सज्जनोंका मनोरथ पूरा न करपाने के लिए उनसे माफी चाहता हूँ। बहुतसे पत्रों और तारोंका मजमून पिछले हफ्तेमें प्रकाशित तारसे[१] मिलता-जुलता है। आर्यसमाज, 'सत्यार्थप्रकाश', ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्दजी और शुद्धि आन्दोलनपर, उनके खयालमें मैंने जो हमला किया है, उसपर इन सबमें क्रोध प्रकट किया गया है। मुझे अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि मेरे विचार अभीतक ज्योंके-त्यों बने हुए हैं। सामान्य दलीलोंसे भरे हुए

 
  1. देखिए "टिप्पणियाँ", ५-६-१९२४।