पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३३
आर्यसमाजी भाई

इन सब तारों और पत्रोंको मैंने बड़े ध्यानसे पढ़ा है। जिन लोगोंने आर्यसमाज सम्बन्धी बातोंकी अनभिज्ञताको मेरे इस तरह लिखनेका कारण बतलाया है, उन्होंने यह शायद इसलिए किया है कि मैं इसका सहारा लेकर बच निकलूँ। लेकिन मेरी बदनसीबी है कि मैंने अपने बच निकलने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। मैं यह नहीं कह सकता कि मैं 'सत्यार्थ प्रकाश' तथा आर्यसमाजके सामान्य सिद्धान्तोंसे ना-वाकिफ हूँ। मैं नहीं कह सकता कि आर्यसमाजके बारेमें मेरी राय पहलेसे अच्छी नहीं थी; बल्कि मैंने पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ उसका अध्ययन किया है। ऋषि दयानन्दके व्यक्तिगत चरित्रबलके प्रति मेरा हमेशा असीम आदरभाव था और आज भी है। उनके ब्रह्मचर्यको मैंने अपने लिए हमेशा अनुकरणीय वस्तु माना है। उनकी निर्भयताका मैं प्रशंसक रहा हूँ। इसके अलावा, अगर मेरे अन्दर प्रान्तीयताका भी कोई भाव हो तो ऋषि दयानन्द मेरी ही तरह एक काठियावाड़ी थे, यह भी मेरे लिए कम फख्र की बात नहीं है। पर मैं लाचार था। मुझे अपनी इच्छाके खिलाफ उन नतीजोंपर पहुँचना पड़ा और मैंने उन्हें प्रकाशित भी तभी किया जब वह प्रसंगानुकूल जान पड़ा। अगर इस मौकेपर मैं अपनी राय दबा जाता तो वह मेरी कायरता होती। समाजी भाइयोंसे मेरी प्रार्थना है कि प्रामाणिक रूपसे प्रकटकी गई मेरी रायसे क्रोधित होनेके बदले वे मेरी आलोचनाको सीधे अर्थमें लें। उसकी छान-बीन करें, मुझे यदि कर सकते हों तो अपनी बातका कायल करें और अगर मैं उनकी बातका कायल न हो सकूँ तो ईश्वरसे मेरे लिए दुआ माँगें। दो चिट्ठियोंमें चुनौतीके साथ कहा गया है कि मैं अपने निर्णयोंके सबूत पेश करूँ। बात वाजिब है। आशा है मैं जल्दी ही अपने निर्णयोंकी पुष्टिमें 'सत्यार्थ प्रकाश' के कुछ अनुच्छेद प्रस्तुत कर सकूँगा। ये सज्जन कृपा करके मुझे धार्मिक वाद-विवादमें न घसीटें। मैं तो सिर्फ वह सामग्री उनके सामने पेश कर दूँगा जिसके सहारे मैं उन धार्मिक नतीजोंपर पहुँचा हूँ। स्वामी श्रद्धानन्दजीके विषयमें मेरे लिए सबूत या दलील पेश करनेका कोई सवाल पैदा नहीं होता। उनसे अपनी मित्रताका दावा मैं पिछले लेखमें कर ही चुका हूँ। उसपर ध्यान देकर आलोचकगण यदि इस मामलेमें उनके और मेरे बीचमें न पड़ें तो मेहरबानी होगी। फिर उनके सम्बन्धमें मेरी राय कुछ भी हो, मैं उनके साथ नहीं झगडूँगा। उनकी आलोचना मैंने एक मित्रकी हैसियतसे की है। शुद्धिके बारेमें भी "जिस अर्थमें ईसाई धर्ममें उसका स्थान है या कुछ कम अंशोंमें इस्लाम में", यह कहकर मैंने उसे जिस तरह सीमित किया है, मेरे आलोचक क्रोधान्ध होकर उसे नजर अन्दाज कर गये हैं। यह बात और है और यह कहना कि हिन्दू धर्ममें मत परिवर्तन होता ही नहीं, बिलकुल दूसरी बात है। हिन्दू धर्मके पास शुद्धिका अपना एक निराला ही ढंग है। परन्तु यदि आर्यसमाजी लोग मेरी रायसे सहमत न हों तो कमसे-कम मुझे अपनी रायपर कायम रहनेकी इजाजत दें। अगर आर्यसमाजी भाई मेरे निवेदनको फिरसे पढ़ें तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि मैंने यह कहा है कि अगर वे चाहते हों तो उन्हें अपनी हलचल जारी रखनेका पूरा-पूरा हक है। दो रायोंका मिल जाना सहिष्णुता नहीं है। सहिष्णुताके मानी तो यह है कि दो आदमियोंके मतमें पूर्व-पश्चिमका अन्तर हो तब भी दोनों एक-दूसरेको निबाह लें।