पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



११७. टिप्पणियाँ

समरथको नहि दोष गुसाँई

मेरे एक घनिष्ठ यहूदी मित्र बात करते-करते अकसर एक मुहाविरेका प्रयोग किया करते थे---"रबी मे" इसका अर्थ यह निकलता है कि देशमें जो शख्स सबसे बड़ा हो वह चाहे जैसा भयंकर जुर्म निःशंक होकर कर सकता है, निःशंक होकर ही नहीं, "समरथको नहि दोष गुसाँई" के न्यायके मुताबिक अपने कुकृत्योंके लिए वह लोगोंकी वाहवाही तक प्राप्त कर सकता है। यह बात आज ओ'डायर--नायरके मुकदमेपर मौजूं बैठती है। इस मुकदमेमें आरम्भसे ही जजने पक्षपात दिखाया। प्रतिदिन, अखबारोंमें इस मामलेके बारेमें जो खबरें छपती थीं, उनको पढ़कर जनताका मन व्यथित होता रहा। मुकदमे का फैसला क्या होगा, यह तो पूर्व निश्चित-सा था, पर निराशाके बीच भी लोगोंको यह आशा लगी हुई थी कि फैसला लिखते हुए अपने उपसंहारमें जज महोदय कुछ-न-कुछ न्याय तो करेंगे ही। लेकिन यह होता कैसे। जो बुरेसे-बुरा हो सकता था, वह होकर रहा। जिस कार्यको करनेमें किसी हिन्दुस्तानीको अपनी जानसे हाथ धोना पड़ सकता हो, वही काम एक अंग्रेज जज बेखटके कर डाल सकता है।

सर माइकेल ओ'डायरकी चुनौतीको मंजूर करके सर शंकरन् नायरने सारे ब्रिटिश संविधान और ब्रिटिश जनताको कसौटीपर रख दिया था; पर इस कसौटीपर वे खरे नहीं उतरे। ऐसे सीधे-से मामलेमें भी सर शंकरन् नायर-जैसे जानेमाने राजभक्तके साथ न्याय नहीं हुआ। यदि सर माइकेल ओ'डायर हार जाते तो उससे ब्रिटिश साम्राज्य नष्ट न हो गया होता। उसकी झूठी प्रतिष्ठाको थोड़ा-सा धक्का जरूर लगता। ब्रिटिश जनता इस बातके लिए मानो वचनबद्ध है कि जबतक उसके निष्ठावान सेवक उस साम्राज्यके पक्षमें काम कर रहे हैं, जो उनकी समृद्धिका स्रोत है, तबतक वे लोग यदा-कदा गलती ही क्यों न कर बैठें, वह उनकी हिमायत करेगी। मैं जानता हूँ कि सर शंकरन् नायरकी इस हारमें प्रत्येक भारतवासीकी सहानुभूति उनके साथ है। मैं तो पहलेसे ही जानता था कि इस मुकदमेका अंजाम क्या होनेवाला है। शैतानकी आंतकी तरह बढ़ते जानेवाले इस निर्जीव मुकदमेको सर शंकरन नायर जिस जीवटसे लड़ रहे थे, उसे देखकर मेरे मनमें उनके प्रति प्रशंसाका जो भाव था वह बढ़ता चला गया। इस मुकदमेसे इस शासनके विरुद्ध मौजूद आरोपोंमें एक और जबरदस्त आरोप जुड़ गया है। इस शासनतन्त्रका विनाश तो किया ही जाना चाहिए।

गलत रास्ता

लेकिन हम असहाय हैं--ऐसा मानकर हमें अपना धैर्य नहीं खो बैठना है। सिराजगंज सम्मेलनने हमें एक गलत रास्ता दिखाया है। गोपीनाथ साहाके सम्बन्धमें सम्मेलनमें जो प्रस्ताव[१] पास किया गया उसका पाठ अब मुझे मिल गया है और इस समय वह

 
  1. देखिए भेंट: 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के प्रतिनिधिसे", ५-६-१९२४।